Friday, 7 February 2014

बलात्कार

I had written this post after the Nirbhaya incident but could not post this in time.
दरिन्दगी से हाल में किए गए बलात्कार ने एक बार फिर से लोगों को सड़कों पर आने को मजबूर कर दिया है। कई सवालों पर मिडीया और इंटरनेट पर लोगों के विचारों की बाढ़ आनी शुरू हो गई है। और इस बाढ़ में सामान्य बाढ़ की तरह ही नदी के साथ नालों का पानी भी साफ नजर आ रहा है। इस घृणित कुकृत्य के उपर मेरे विचार जानने से पहले जरा इन नालों के पानी पर भी गौर कर लें।

चिप्पी लगाए जा
हमारी हरेक आदमी पर राज्य, धर्म, जाति आदि के Tag लगाने की प्रवृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि हम अच्छे बुरे हर समय में अपनी इस प्रवृति को अपने उपर हावी होने को रोक नहीं पाते हैं। इससे मिडीया के लोग भी अछूते नहीं हैं। मगर इसका खुला प्रदर्शन देखना हो तो इंटरनेट और खास तौर पर फेसबुक पर देखें। जरा गौर करें इस घटना को किस तरह से लोग इंटरनेट पर बयान कर रहे हैं। पीड़िता के आत्म सम्मान का ख़्याल न रखते हुए इसको बड़े ही चित्रात्मक ढ़ंग से प्रस्तुत करने के साथ-साथ लोग बलात्कारियों के लिए जितने ज्यादा से ज्यादा Tags हो सकते हैं उतना जोड़ने की कोशिश करते देखे जा सकते हैं। “वे सब्जी वाले थे.. इतने लोग बिहारी थे” इत्यादि। कई तो सभी बलात्कारियों को “बिहारी” बताने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं जबकि यह सत्य नहीं है। जैसा कि हर Tag का उद्देश्य होता है इन Tags ने भी लोगों का ध्यान मूल मुद्दे से भटकाया हीं है और इस विरोध आन्दोलन में उन कुछ अभागों को बेहिचक आगे से रोकने का काम किया है जो कि इन Tags के साथ जीवन जीने को मज़बूर हैं। फिर भी ऐसे पक्षपाती लोगों की मंशा को धता बताते हुए पटना में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
अपराधीयों के आर्थिक वर्ग की ओर इशारा करने वाले Tags लगाने वालों की आँखों पर जहाँ वर्गवाद का चश्मा चढ़ा है वहीं क्षेत्रीय Tag लगा कर बात करने वाले लोगों की नजर पर क्षेत्रवाद का। और जैसा की अमूमन होता है इन चश्मों से अपराध और अपराधीयों को देखने पर वे आपको पूर्णता में नहीं दिखते हैं।
अपराधी और उनका आर्थिक वर्ग
आर्थिक स्थिति का इस अपराध में कोई योगदान नहीं है । यह कोई आर्थिक अपराध नहीं है। अपराधीयों के अपराध करने के तरीक़े पर उनके आर्थिक वर्ग और उनकी शैक्षणिक स्थिति का असर तो होता है परंतु इससे अपराध की गम्भीरता में कोई अंतर नहीं पड़ता। यह समझना और जानना अत्यंत कठिन नहीं है कि बढ़ते आर्थिक और शैक्षणिक स्तर से अपराध करने वाले की हिम्मत, सफ़ाई और उसके पकड़े न जाने की संभावना बढ़ती जाती है। अंत: यदि समाज अपराध रोकने के प्रति इतना ही गम्भीर है तो उच्च वर्ग और शैक्षणिक स्तर वाले अपराधी के द्वारा किए गए अपराध पर समाज को ज्यादा चिंताग्रस्त होना चाहिए परंतु मैं ऐसा नहीं कहूँगा क्यों कि मेरी नज़र में अपराधी या ग़ैर अपराधी पर ये Tags लगाना बेमाने है।
मेरे विचार में लोगों ने अपनी सुविधानुसार हर अपराध की Tagged परिभाषाएँ गढ़ ली है और उनके पास अलग-अलग Tag वाले अपराधीयों के द्वारा किए गई अपराध की गम्भीरता को मापने के लिए अलग-अलग बैरोमीटर है।
इस बलात्कार के अपराधीयों को सज़ा दिलवाने की मुहिम के दिनों में कई अन्य राज्यों में आर्थिक स्थिति की दृष्टि से निचले पायदान पर बैठी बच्चियों से हुए बलात्कार की घटना को मिडीया ने उतना महत्व नहीं दिया जितना इन घटनाओं को मिलना चाहिए था। इनमें एक घटना बैंगलूरू में 15 साल की एक “मज़दूर की बेटी” के साथ हुई थी और दूसरी बिहार में 8 साल की एक “दलित की बेटी” के साथ। दोनों की कुकर्म के बाद हत्या कर दी गई थी। क्या उन अख़बारों  और टी वी चैनलों में काम करने वाले लोग इन Tags लगी पीड़िताओं को इनसान नहीं समझते? अफ़सोस है कि शायद नहीं। यदि वे ऐसा करते तो यह मुहिम एक विशिष्ट वर्ग और बड़े शहर में रहने वाली लड़की के लिए न्याय की गुहार मात्र बनने की जगह  इस घृणित अपराध के विरूद्ध शंखनाद बन सकता था। परंतु Tags लगाने की इस प्रवृति ने ऐसा होने से एक बार फिर रोक दिया।
अपराधी और उनका मूल क्षेत्र
मेरा मानना है कि क्यों की प्रत्येक राज्य, धर्म, जाति और अन्य जो भी Tag आप उचित समझें उन Tag वाले लोगों में भिन्न आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति वाले लोगों की बहुलता है अत: उनके अपराध के करने के तरीकों और पकड़े जाने की प्रतिशतता भी भिन्न है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए यदि हम यह माने कि अपराधीयों का प्रतिशत सभी ओर समान है तो क्या ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाले मध्य भारत के राज्यों में अपराधियों की संख्या ज्यादा होना कोई आश्चर्य की बात है? फिर भी यदि कहीं अपराध का प्रतिशत अधिक है तो उसका विश्लेषण दोष निवारण के नज़रिए से होना चाहिए न कि क्षेत्रवाद से प्रेरित और दोषारोपण के नज़रिए से। ये अपराधी कोई राज्य भक्त तो होते नहीं अत: इनसे सबसे ज्यादा त्रस्त उनके अपने राज्य के लोग होते हैं। अपराध और अपराधीयों के वर्णन में इन Tag का प्रयोग करने से मिडीया वाले यदि बचें तो इससे अपराध विरोधियों का क़िला मजबूत ही होगा। मगर Tag लगाने की प्रवृति अफ़सोस ऐसा होने से बार बार रोक देती है।

बलात्कार और इस शब्द का दायरा

हालाँकि मैं कोई विधि विशेषज्ञ तो नहीं हूँ पर समय-समय पर अख़बारों में प्रकाशित बलात्कार  के चल रहे मामलों को पढ़ने से मुझे इस शब्द का दायरे में निम्न प्रकार के मामले नज़र आते है।

1.     सर्वप्रथम अजनबी(यों) द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर किए गए कुकृत्य , उदाहरण: वर्तमान मामला
2.     परिवार और परिचितों के द्वारा किए गए विशेष रूप से बच्चों के साथ किए गए कुकृत्य। हालाँकि इस प्रकार के मामलों की संख्या कम जान पड़ती है परंतु कई समाजसेवी संस्थाओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों और हाल में प्रसारित सत्यमेव जयते में दिखाए गए मामलों से समस्या की गम्भीरता का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
3.     पीड़िता के आर्थिक अथवा व्यवसायिक जीवन को प्रभावित करने का सामर्थ्य रखने वाले वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा भय दिखा कर कार्यस्थलों पर किए जाने वाले कुकृत्य: उदाहरण: कई
4.     पहले दिन से हीं यौन सम्बन्ध बनाने की मंशा के साथ भोली-भाली लड़कियों को झूठे प्रेम में फँसा कर किए जाने वाले कुकृत्य। बाद में सम्बन्ध विच्छेद को ब्रेक अप का फैंसी नाम दे कर अपराधी नए शिकार की तलाश में आगे बढ़ जाता है। इस प्रकार के मामले विरले ही प्रकाश में आते हैं मगर इसकी संख्या मेरे विचार में सबसे अधिक है।
5.     कोई फायदा पाने की चाहत रखने वाली महिलाओं द्वारा स्वेच्छा से बनाए गए शारीरिक सम्बन्धों को बाद में वादे के अनुसार फायदा न मिलने के कारण अदालत में बलात्कार बता कर अपराधी को सज़ा दिलवाने के प्रयास।  ऐसे मामले फिल्म व्यवसाय से जुड़े लोगों में सर्वाधिक पाए जाते हैं, परंतु अन्य व्यवसायिक क्षेत्रों में भी कमज़ोर चरित्र वाले उच्च अधिकारियों और उनसे किसी भी कीमत पर फायदा पाने की इच्छुक लालची महिलाओं के बीच इस प्रकार के मामले होते रहते हैं।
6.     वैवाहिक सम्बन्धों में पत्नी की अनिच्छा के होते हुए बनाए गए सम्बन्ध।
पाँचवे और छठे प्रकार के मामलों को बलात्कार मानना अनुचित है। पाँचवे प्रकार के मामलों को आर्थिक मामले की श्रेणी में रखना उचित है । वेश्यावृति और इस प्रकार के मामलों में पड़ी महिलाओं में केवल एक फर्क है: वेश्यावृति में कीमत पैसे के रूप में वसूली जाती है और इस प्रकार के मामलों में फायदों के रूप में। यदि वेश्या को कोई कीमत न चुकाए तो वह व्यक्ति मात्र आर्थिक अपराधी है। छठे प्रकार के  अपराध मात्र घरेलू हिंसा के अपराध हैं। इस प्रकार से बनाए गए सम्बन्ध में पति को मात्र यौन हिंसा का दोषी मानना उचित है। 
साथ ही साथ दूसरे तीसरे एवं चौथे प्रकार के बलात्कारों को भी उसी गम्भीरता से लेना चाहिए जितना की पहले प्रकार के अपराधों को। सर्वप्रथम इनकी संख्या जितनी अधिक है, इनका प्रकाश में आने का प्रतिशत उतना ही कम। इनमें पहले मामले से अधिक कड़ी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए।

बलात्कार का कारण
बलात्कार के कारणों को लेकर कुछ पूर्वाग्रह से ग्रसित बयान कई जिम्मेदारी वाले पदों पर आसिन अधिकारी और नेता भी देते रहते हैं जैसे की कम कपड़े..आदि । परंतु बलात्कार का कारण केवल कमज़ोर चरित्र, हैवानियत और आत्म नियंत्रण की कमी ही होती है। कपड़ों और सुनसान स्थान पर अकेली चलने वाली लड़की को इसका जिम्मेदार ठहराने वाले लोग जाने अनजाने हर पुरूष को बलात्कारी साबित कर देते हैं। क्या सभी पुरूष थोड़ी चमड़ी और मौका देख कर बलात्कार करने को आतुर रहते हैं? यह सर्वथा अनुचित है। बलात्कार करने का कारण बलात्कारी के दिमाग में मौजूद होता है उसे बाहर ढूँढने वाले अपराध को बढ़ावा ही देते हैं।

अश्लील साहित्य, फिल्म और गालियाँ लोगों की मानसिकता को दूषित करते हैं और इस प्रकार के जघन्य कृत्यों के प्रति संवेदनशीलता में कमी लाते हैं। वर्तमान मामले में भी अपराधीयों के पास इस प्रकार के साहित्य मिले हैं। गैर-जिम्मेदाराना बयान भी बलात्कारियों के लिए दूध में बॉर्नवीटा का काम करतें हैं।

राजनीति में अपराधीयों के बढ़ती संख्या में एक महत्वपूर्ण हिस्सा बलात्कारियों का भी है। इन बाहुबलियों के खिलाफ मामला दर्ज़ करने वाली महिलाएँ  अत्यंत हिम्मत वाली होंगी इसे साबित करने के लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं है। साथ ही साथ यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि ऐसे कई मामले समाज, क़ानून की पेचीदगीयों और इन बाहुबलियों के इश्वरतुल्य सामर्थ्य से डरते हुए दब जाते होंगे। अत: ऐसे नेताओं का प्रतिशत जितना दिखता है उससे कहीं अधिक होगा। और उनका अपने भाई बन्धुओं के प्रति सहानुभूति रखना अपेक्षित है। इस स्थिति के लिए जनता के साथ-साथ उनको टिकट देने वाली राजनीतिक पार्टियाँ भी ज़िम्मेदार हैं। आश्चर्य नहीं है कि लोकतंत्र के देवालयों में जनता के तथाकथित प्रतिनिधि  आपत्तिजनक फिल्में देखते पकड़े गए हैं। यदि राजनैतिक पार्टियाँ वास्तव में इस समस्या के प्रति गम्भीर हैं तो उन्हें फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बिठा कर सर्वप्रथम नेताओं के विरूद्ध लगे आरोपों की जाँच एवं दोषी पाए गए नेताओं के विरूद्ध सज़ा सुनिश्चित करना चाहिए।
पुरुष प्रधान मानसिकता  महिलाओं को पशु से भी नीचे का समझती है। सम्मान तो दूर महिलाओं को मानवीय सम्वेदनाओं का भी अधिकारी नहीं मानती। हर क्षेत्र में महिलाओं का आगे आना उसके झूठे सम्मान को ठेस पहुँचाता है जिसकी कुण्ठा महिलाओं के प्रति शाब्दिक एवं शारीरिक हिंसा के रूप में बाहर आती है। सनद रहे कि पुरूष को प्रधान मानने वाला हरेक अहंकारी पुरूष बलात्कारी नहीं होता है। फिर भी  एक प्रगतिशील एवं सभ्य समाज में ऐसी मानसिकता स्वीकार्य नहीं हो सकती है। इस मानसिकता को बदलने के लिए शिक्षण और जागरूकता अभियानो से बड़े किसी उपाय की ज़रूरत है ।
शराब कई अपराधों की जड़ है और बलात्कार भी इस ज़हर के प्रभाव से अछूता नहीं है। थोड़े पैसों का लालच छोड़ कर सरकार को गम्भीरता से शराब पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए।

बलात्कारियों को क्या सज़ा मिलनी चाहिए

सज़ा का उद्देश्य कई हो सकते हैं, अपराधी में सुधार (जेल में चलाए जा रहे कार्यक्रम अथवा सश्रम कारावास), पीड़ित को न्याय देना (आर्थिक अपराधों की स्थिति में पीड़ित को हुई आर्थिक क्षति को दूर करना), समाज को अपराधी से बचाना (कारावास) अथवा भय द्वारा अपराध प्रवृति को दबाना। भारतीय दण्ड व्यवस्था में दिए गए दण्ड प्रावधानों का उद्देश्य मूलत: अपराधी में सुधार की और केंद्रित है  परंतु भ्रष्टाचार एवं न्याय मिलने में अत्यधिक देर इसकी बची खुची प्रभावशीलता को भी शून्य कर देती है। यदि किसी अपराध के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान हो और किसी युवा अपराधी का अपराध साबित होते-होते वह बुढ़ा हो जाए तब इस सज़ा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। विभिन्न Tag वाले लोगों को सज़ा मिलने की सम्भाविता एवं शीघ्रता में अंतर भी न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता को सन्देह के घेरे में ला कर खड़ा करता है। अत: सज़ा का मिलना शीघ्र, निष्पक्ष और अवश्यम्भावी हो जाने पर ही वह निरोधक का काम कर सकता है ।  सज़ा के स्तर का नम्बर उसके बाद आता है। 
सभी अपराध विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि गुस्से में किए गए अपराधों को छोड़ दें तो अपराधी के अपराध करने का स्तर अचानक हीं उँचा नहीं होता। शुरूआत हमेशा निचले स्तर के अपराधों से होती है। बलात्कारी बनने की शुरूआत हमेशा छेड़छाड़ से होती है। वर्तमान मामले के आरोपी इससे पहले कई अन्य छोटे मोटे मामलों यथा पॉकेटमारी, मारपीट और छेड़छाड़ आदि में लिप्त पाए गए थे परंतु विडम्बना यह है कि उनको कभी भी सही सज़ा नहीं मिली। भ्रष्टाचार और छेड़छाड़ के मामलों में पुलिस की उदासीनता से ऐसे तत्वों को बढ़ावा मिलता है। अपराध की पाठशाला में निचली कक्षाओं के अपराधीयों  को यदि उतीर्ण होने से रोक दिया जाए तो समाज को अपराध प्रवीण लोगों की फौज झेलने से बचाया जा सकता है।   

इस अपराध के लिए मृत्युदंड का समर्थन करने वालों के तर्क निम्न सोंच पर आधारित है:
1.    पाखण्डियों के समाज में पीड़िता की स्थिति इतनी बदतर हो जाती है कि वह जीवन भर इस अपराध को भूल नहीं पाती। एक सामान्य जिन्दगी उसकी पहुँच से बाहर हो जाती है। उसका प्रतिशोध तभी पूरा हो सकता है जब अपराधी को प्राणदण्ड मिले।
2.    इस प्रकार के एक-एक अपराधी से समाज को मुक्त कर हम एक बलात्कारी मुक्त समाज का निर्माण कर सकते हैं।
3.    कड़ी सज़ा के प्रावधान से अपराधी यह अपराध करने से बचेगा। परंतु यदि मनोवैज्ञानिक पहलू पर विचार किया जाए तो कामोत्तेजना से ग्रसित व्यक्ति की हालत एक नशेड़ी के जैसी हो जाती है। क्या स्थान और साधन उपलब्ध होने पर यह भय उसके कामोत्तेजना पर अंकुश लगा पाएगा? शायद नहीं।
 इस अपराध के लिए मृत्युदण्ड की वकालत करने वाले एक बात भूल जाते हैं कि मृत्युदण्ड की सज़ा का प्रावधान करने से कई नई समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं।
1 यदि आप हत्या और बलात्कार को एक श्रेणी की सज़ा बना देंगे तो बलात्कारी पीड़िता को मारने में तनिक भी संकोच नहीं करेगा। हालाँकि अभी भी परिचितों द्वारा किए कुकर्मों के मामलों में पीड़िताओं की हत्याएँ आम है पर मृत्युदण्ड का भय इसे और बढ़ावा देगा।
2. कोई भी गलती से किसी की मृत्यु के लिए खुद को ज़िम्मेदार बनने से रोकना चाहेगा। मृत्युदण्ड के मामलों में न्यायाधीश भी अत्यंत चौकन्ने हो जाते हैं। केवल पुख्ता सबूतों को हीं महत्व दिया जाता है और अंतिम निर्णय सुनाने में भी देर होती है। पीड़िता के आत्मसम्मान को न्यायालय में तार-तार करना आम बात है, मृत्युदण्ड इसमें और बढ़ोतरी ही करेगा। 

मेरे विचार में अपराधी को ऐसी सज़ा मिलनी चाहिए जिससे की वह अपने अपराध को जीवन भर भूल न पाए । 7-10 साल की सज़ा के साथ-साथ अंगभंग से इस उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसके बाद समाज़ को उसकी घृणित मानसिकता से कोई खतरा नहीं रहेगा। फिर भी बलात्कार के विस्तृत सन्दर्भ में यदि वह लैंगिक प्रताड़ना के किसी मामले में दुबारा लिप्त जाए तो उसे फाँसी भी दी जा सकती है।

क्या केवल सज़ा के प्रावधान से इस अपराध पर अंकुश लगाया जा सकता है
यह मान लेना की केवल सज़ा इस अपराध पर अंकुश लगाने में समर्थ हो जाएगी बेमाने होगा। जिस प्रकार यदि किसी क्षेत्र में गरीबी और बेरोज़गारी की स्थिति चिंताजनक हो तो बिना इन कारणों का निदान किए यह अपेक्षा रखना कि पॉकेटमारी, चोरी और अन्य आर्थिक अपराध मिट पाएँगे,  अनुचित है उसी प्रकार इस प्रकार की मानसिकता वाले लोगों की समस्याओं और कुण्ठाओं का निदान भी आवश्यक है।

जिन राज्यों में लिंगानुपात चिंताजनक स्थिति तक गिर चुका है उन राज्यों में इस दिशा में सुधारात्मक और दण्डात्मक कदम उठाने के काम को भी बराबर की प्राथमिकता देनी होगी।

हमारे देश में पाखण्डी लोगों द्वारा वेश्यावृति को अवैध बना देने से भी कई समस्याएँ बलवती हुई हैं। इससे पुलिस और अधिकारियों की जेबे गर्म तो हो जाती हैं परंतु इस तथाकथित अवैध व्यवसाय पर रोक नहीं लग सका है। अत्यंत दयनीय स्थिति में जी रही ये महिलाएँ मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह जाती हैं एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में कई जानलेवा यौनजनित रोगों से ग्रसित हो जाती हैं। इससे न केवल इनकी आजीविका पर असर पड़ा है बल्कि अपराधी प्रवृति वाले लोगों को भी रोगों के भय से सभ्य समाज की लड़कियों को अपना शिकार बनाने का बहाना दिया है। इन रोगों के बारे में यदि समय-समय पर इनकी जाँच कर प्रमाणपत्र दे दिया जाए, वेश्याओं का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया जाए एवं उनके बच्चों के पुनर्वास की उचित व्यवस्था की जाए तो एक साथ कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। जिन्हें लगता है कि वेश्यावृति के वैध करार देने से गरीब और मासूम लड़कीयों के अगवा होने में वृद्धि हो जाएगी उन्हें मैं यह बताना चाहता हूँ कि यदि वेश्याओं के पंजीकरण की व्यवस्था इतनी पुख्ता हो कि बिना पंजीकरण के इस व्यवसाय में उनका प्रवेश वर्जित हो जाए तो ऐसे मामले प्रकाश में आना आसान हो जाएगा। सभी कार्यक्षेत्रों की तरह वेश्यावृति में भी महिलाओं पर अत्याचार आम है। परंतु व्यवसाय के अवैध स्थिति के कारण वेश्याओं के लिए कानून व्यवस्था के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं। कैसी विडम्बना है कि जिस देश में कसाब जैसे दरिन्दे को जेल में ससम्मान सभी मानवाधिकार हासिल हैं, इन महिलाओं को अनैतिक लोगों की सेवा करने वाला एक व्यवसाय करने के लिए अनैतिक बताया जाता है और बुनियादि अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। वहीं उनके ग्राहक दिन के उज़ाले में शराफत का नकाब ओढे हमारे आपके बीच सामान्य जिन्दगी जी रहे होते हैं।
आपतिजनक साहित्य एवं फिल्मों पर रोक लगी होने के बावजूद भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था इन सामग्रियों के छुपे प्रसार को सुनिश्चित करती है। सरकार अपना विरोध करने वाले स्वरों को दबाने के लिए तो किसी भी हद तक जाने को तैयार बैठी है परंतु आपत्तिजनक वेबसाइटों की पहुँच को बरक़रार रखना चाहती है।
          निष्कर्ष

मैं इस विषय का विशेषज्ञ नहीं हूँ। यद्यपि मैंने निष्पक्ष और सम्पूर्ण विश्लेषण का  प्रयास किया है पर मेरे विचार इस विषय पर अंतिम सत्य नहीं हो सकते। फिर भी जिस प्रकार गुस्साए लोग चारो ओर केवल फाँसी को इस समस्या का एकमात्र और अंतिम समाधान बता कर इस समस्या के सम्पूर्ण निवारण से भटक रहे हैं, मैं अपने विचारों को बेहतर मानता हूँ। आशा है कि आप इसमें सहयोग कर इसे और सम्पूर्ण बनाने में सहयोग करेंगे।

Tuesday, 28 January 2014

भ्रष्टाचारियों की आँखों का तारा : Contract Employment in Government Jobs

कॉंट्रैक्टरी प्रथा का जन्म और पालन पोषण भ्रष्टाचार की कोख से हुआ है। पहले जब प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था नहीं थी तब सरकारी नौकरियों के लिए चयन में किस तरह से भाई भतीजावाद, भ्रष्टाचार और जातिवाद का नंगा नाच होता था यह किसी से छुपा नहीं है।
समय के साथ जब चपरासी से ले कर सभी छोटे बड़े पदों के लिए पारदर्शी प्रतियोगिता परीक्षाओं का प्रयोग होने लगा तब न केवल इन अफसरों के पेट पर लात पड़ गई बल्की कार्यालयी माहौल में भी कई आमूल-चूल परिवर्तन हुए इन्हीं परिवर्तनों का बेड़ा गर्क करने की बहुत बड़ी साजिश है कॉंट्रैक्टरी प्रथा।
1)    प्रतियोगिता परीक्षाओं द्वारा पेट पर लात पड़ने के बाद कॉंट्रैक्टरी प्रथा ने आमदनी के नए द्वार खोले:
a.     नौकरी देने के वक्त घूस
b.    कॉंट्रैक्टर के द्वारा हर महीने के कुल वेतन से मिलने वाला हिस्सा
c.     बाद में नियमित करते वक्त प्राप्त होने वाली मोटी घूस। हालाँकि सुप्रिम कोर्ट के कई निर्णयों के बाद इन कॉंट्रैक्ट कर्मचारियों के नियमित करने की परिपाटी में कमी आई है।
2)    कॉंट्रैक्टरी प्रथा आरक्षण से आने वाले दलित और पिछड़ी जाति के कर्मचारियों को दूर रखने का ज़रिया भी बना। हालाँकि नियमित करते वक्त आरक्षण के नियमों का  पालन करना अनिवार्य होता है (जिसको विशेष चयन परीक्षा के माध्यम से भरा जाता है )।  परन्तु तब तक सरकारी कार्यालयों से आरक्षित उम्मीदवारों को कॉंट्रैक्टरी प्रथा के हथियार के इस्तेमाल से दूर रखा जाता है।
3)    कॉंट्रैक्ट कर्मचारियों के माध्यम से सरकार भी बहुत पैसा बचा पा रही है क्यों कि इनका वेतन भी कम होता है और सरकार के सर पर रिटायरमेंट के बाद का कोई आर्थिक बोझ भी नहीं रहता। परंतु क्या मेधाशून्य लोगों को जनसेवा के कार्यों में लगा कर सरकार जनता का अपकार नहीं कर रही है? क्या देश की जनता को कुछ अधिक पैसे खर्च कर बेहतर सेवा नहीं देनी चाहिए?
4)    किसी के अहसान की बदौलत आने वाले कर्मचारी जीहुजुरी करते थे, और करते भी क्यों नहीं , यही तो वह गुण है जिसकी बदौलत वह अपने मेधा की शून्यता को छिपा सकते थे । प्रतियोगिता परीक्षाओं से आने वाले कर्मचारी मेहनती और स्वाभीमानी होते हैं। अपने अहम को तेल लगाने वाले लोगों की कमी सरकारी अधिकारियों को जल्द ही खलने लगी और उसका परिणाम था कॉंट्रैक्ट प्रथा। कॉंट्रैक्टरी प्रथा द्वारा आने वाले कर्मचारी नियमित होने के लालच में अफसरों के व्यक्तिगत काम भी करते हुए मिल जाते हैं।
5)    अगर आप सोंच रहे हैं कि कॉंट्रैक्ट कर्मचारी बड़े ही निरिह और आज्ञाकारी होते हैं तो उन लोगों से पूछे जिन्होंने इनको नियमित होने के बाद काम करते देखा है। वे आपको बता देंगे कि ये सामान्य नियमित कर्मचारियों से ज्यादा ऐंठन वाले हो जाते हैं।

जो लोग कॉंट्रैक्ट कर्मचारियों को मानवीय आधार पर नियमित करने की बात करते हैं वे सड़क पर बेरोज़गार घूम रहे मेधावी नव युवकों के साथ अन्याय कर रहे हैं जिनका उस पद पर पहला अधिकार है। कॉंट्रैक्ट प्रथा में काम कर रहे कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए ज्यादा से ज्यादा उनके अनुभव के आधार पर प्रतियोगिता परिक्षाओं में उम्र में छूट दी जा सकती है पर कोई भी सरकार जो इन कॉंट्रैक्ट कर्मचारियों को येन केन प्रकारेण नियमित करने की बात करती है, भ्रष्टाचार विरोधी नहीं कही जा सकती है।



Monday, 14 March 2011

महिला दिवस पर

कुछ दिन पहले महिला दिवस के कारण महिलाएँ एक बार फिर अख़बारों की सुर्खियों मे थी, पर इस बार कुछ अलग था। कुछ दिनों पूर्व हीं एक विमान यात्री ने यह कह कर तमाशा खड़ा कर दिया था कि वह उस विमान में यात्रा करके अपनी जान ज़ोखिम में नहीं डालना चाहता जिसको कि महिला चला रही हो। जो अपना घर नहीं सम्भाल सकती वह विमान कैसे सम्भालेगी। एक बात जो वह भूल गया था कि लोकतांत्रिक भारत में खुल्लम खुल्ला इस प्रकार के तालिबानी सोंच की कोई जगह नहीं है, इसलिए अंतत: उसे उस विमान में यात्रा करने के लिए उस विमान की सभी महिला कर्मचारियों से माफ़ी माँगनी पड़ी। और हाँ एक बात बताना तो मैं भूल हीं गया कि वह सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुँच गया परंतु महिला दिवस के दिन राधिका अपने कॉलेज तक पहुँचने के पहले हीं किसी मान ना मान मैं तेरा मेहमान types आशिक के हाथों भगवान के घर पहुँचा दी गई। पूरा देश हिल गया और दिल्ली में रहने वाले लड़कियों के पहले से ही डरे अभिभावक तो मानो अभी तक अपने आप को सम्भाल नहीं सके हैं।

हाँ एक बात और खास थी इस प्रकार के महिला दिवस में महिला दिवस के सौ साल पूरे हुए थे और तारीख थी: 08-03-11. 8+3=11 तो मैंने भी सोंचा MARCH को इस अति विशिष्ट मार्च की तारीख पर अपने विचार तो रखने हीं चाहिए।

मेरे पाठक जानते हैं कि मुझे किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह पसन्द नहीं है । जातिवाद, धर्मान्धता और क्षेत्रवाद जैसे पूर्वाग्रहों में अज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान रहता है, क्यों कि झुण्ड में रहने की मानवीय प्रवृति आपको दूसरे झुण्ड से दूर रखती है और आप विरोधी झुण्ड के प्रति तरह तरह की भावनाएँ गढ़ लेते है और जैसा चश्मा लगाएँगे वैसा दिखना भी शुरू हो जाता है । परंतु महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह तो इन पूर्वाग्रहों को भी मात दे जाति है। आखिर उस समूह के प्रति आप कैसे पूर्वाग्रह रख सकते है जिसका कोई सदस्य आपकी जन्मदाता, कोई आपकी बहन, कोई पत्नी और कोई बेटी के रूप में आपके जीवन का अभिन्न हिस्सा है???? जिनके अनगिनत अहसानों को आप मरते दम तक नहीं चुका सकते हैं । कहीं न कहीं तो भयानक गड़बड़ है उस मस्तिस्क में जिसमें इस प्रकार की पूर्वाग्रह का वास है।

बिन्दुवार उन पूर्वाग्रहों पर चर्चा करूँगा जो अपने समूह (यही एक समूह है मेरी जिसकी सदस्यता हिन्दी में लिखने के कारण मेरे पाठकों को उजागर हो चुकी है) के सदस्यों में मैंने देखी है।

महिलाओं को नौकरी नहीं करनी चाहिए।

एक प्रतिष्ठित कम्पनी में नौकरी के लिए साक्षात्कार के दौरान मेरे पास बैठे एक पुरूष उम्मीदवार ने कहा,यार ये लड़कियाँ नौकरी लेने क्यों आ जाती हैं, यहाँ हम नौकरी के बेगैर भूखे मर रहें है और इन्हें एक हीं परिवार में डबल इनकम के लिए नौकरी चाहिए। मैं मुस्कुरा कर रह गया, क्यों कि एक भूखे को सहानुभूति की जरूरत होती है तर्क की नहीं। मेरी मुस्कुराहट को अपने तर्क की स्वीकृति मानते हुए वह आगे बोला, सरकार को एक नियम बनाना चाहिए, एक परिवार में कोई एक हीं नौकरी करेगा, चाहे पति या पत्नी। मुझे लगा चलो बन्दा इतना तो मानने को तैयार है कि महिलाएँ नौकरी कर सकती हैं बशर्ते उनका पति बेरोज़गार हो। यानि उसको महिलाओं की योग्यता पर कोई शक नहीं था, उसका तर्क का एक प्रकार की समाजवादी धारणा से प्रेरित था, सभी परिवारों में चुल्हा जले, भले हीं आटा कोई लाए अथवा बर्तन कोई माँजे। वरना कई तो ऐसे मिल जाएँगे जो महिलाओं को बस चूल्हा चौका सम्भालने से ज्यादा किसी काबिल नहीं समझते।

इस बात में कोई शक नहीं है कि महिलाओं को नौकरी करनी चाहिए और ज़रूर करनी चाहिए। जो एक शिशु का पालन पोषण कर उसे इंसान बना सकती है वह दुनिया का कोई भी काम कर सकती है। इस बात में किसी तर्क वितर्क की जगह नहीं है। महिलाओं के कार्यालय मे आने से आने वाले फर्कों को रेखांकित करना चाहूँगा:

कार्यालय का माहौल सभ्य हो जाता है: कोई माँ बहन की गालियाँ नहीं निकालता, ना बॉस अपने अधिनस्थों को ना कोई अपने सहकर्मीयों को। गर्मी के दिनों में सभी कर्मचारियों की कमीज़ उनके देह पर हीं विराजमान होती है उपर की एकाध बटन खुलती भी है तो किसी किसी की और कभी-कभार।

प्रतियोगिता का माहौल बनता है: कभी कभी किसी सुन्दर महिला के कारण उसके सहकर्मी अथवा अधिनस्थ पुरूषों के बीच अथवा एक काबिल महिला और उसके सहकर्मी पुरूषों के बीच। आखिर कोई भी स्वाभिमानी पुरूष कार्य के क्षेत्र में महिला से हारना नहीं चाहता। अब यह बात अलग है कि कभी कभार कुछ कमज़ोर मानसिकता वाले पुरूषों के लिए यह विघ्नकारी साबित होता है, पर इसके लिए महिलाओं को दोष देना उचित नहीं है।

विक्रय, ग्राहक सेवा, स्वागत विभागों में महिलाओं का मुकाबला पुरूष कभी नहीं कर सकते। संवेदनशीलता, सम्मत करने जैसे हुनरों में महिलाएँ पुरूषों से कहीं आगे हैं। एक शैतान बच्चे की माँ का धैर्य क्या एक पुरूष के पास हो सकता है कभी?

महिलाएँ काम की वस्तु मात्र हैं

अब ऐसा वाहियात तर्क तो इस पृथ्वी का निकृष्टतम प्राणी मात्र मनुष्य हीं दे सकता है। क्योंकि जहाँ तक मुझे मालूम है अन्य कई अपराधों की तरह बलात्कार भी मात्र मानव जाति तक हीं सीमित है। इस प्रकार के तर्क देने वालों के लिए महिलाएँ एक निर्जीव वस्तु मात्र हैं । अत्यंत हीं अमानवीय और घृणित तरीके से किए गए बलात्कार के समाचार इस बात की पुष्टी करते हैं कि हमारे समाज में इंसान के रूप में कुछ ऐसे लोग भी रहते हैं जिन्हे मानसिकता के लिहाज़ से जानवर भी अपनी श्रेणी में रखना अपनी तौहिन समझेंगे। धन्य हैं वे कुछ देवियाँ जो बदनाम गलियों में इनका ज़हर निकालती रहती हैं, वरना गलियों में हमारी आपकी माँ-बहनों का चलना दूभर हो जाए। अरूणा शानबॉग की हालत देख कर शर्म से सिर झुक जाता है।

महिलाओं के यौन शोषण का अर्थ मात्र बलात्कार नहीं होता। इस विषय में पुरूषों को उचित शिक्षा देने की हर कार्यालय और संस्थान में कोशिशें हो रही हैं। अगर कुछ शरारती महिलाओं द्वारा इन नियमों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया जाता है तो इसमें इन नियमों को दोष देना उचित नहीं। अब अगर अन्य क्षेत्रों में महिलाएँ यदि पुरूषों की बराबरी कर सकती हैं तो फिर मौकापरस्ती और धोखेबाज़ी में क्यों नहीं।

महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए

अगर किसी क्षेत्र में महिलाओं के आने की सबसे ज्यादा ज़रूरत है तो वह है राजनिति। कुर्सी तोड़ते और एक दूसरे का कुर्ता फाड़ते राजनेताओं को देखकर हम उकता गए हैं। अब एक दूसरे की चोटी खींचते राजनेताओं को देखने की बड़ी इच्छा हैJ Jokes apart, अपराधी तत्वों में कुछ न कुछ तो कमी होगी हीं। जब हम मानव निर्मित श्रेणी जैसे कि जाति, धर्म आदि के आधार पर सीटों के आरक्षण की बात कर सकते हैं तो प्रकृति निर्मित लिंग के आधार पर क्यों नहीं। जो घर का बज़ट बना सकती है वह देश का बज़ट क्यों नहीं? जब वे टेलिविजन पर समाचारों का विश्लेषण कर सकती हैं तो उन समाचारों को बना क्यों नहीं सकती हैं?

महिलाएँ पुरूषो के बराबर हीं नहीं उनसे कहीं आगे निकल सकती हैं । हर वर्ष शैक्षणिक परीक्षाओं में महिलाओं का उत्तीर्णता के प्रतिशत अथवा अंकों के मामले में महिलाएँ पुरूषों को कहीं पीछे छोड़ देती हैं। अब पुरूषों को क्रिकेट, आवारागर्दी, सिनेमा और नशे से समय मिले तब तो पढ़ाई करें। मेरा तो मानना है कि कुछ पुरूष तो ऐसे निकम्मे होते हैं कि यदि उस नवयुवक की बात मान कर सरकार नौकरी के लिए इस प्रकार का कोई नियम बना दे तो ऐसे पुरूष अपनी पत्नी से चूल्हे चौके के साथ साथ नौकरी भी करवाएँगे और खुद किसी शराबखाने, कोठे, जुए के अड्डे अथवा नुक्कड़ के बैठक में डिंग हाँक कर अपने पुरूष होने का ढिंढोरा पिटते नज़र आएँगे। अगर इश्वर ने पुरूषों को शारिरिक रूप से सबल बनाया है तो महिलाओं को मानसिक रूप से। उनका अपने मन पर जितना नियंत्रण है उतना पुरूषों का नहीं। अनुशासन हीं देश को महान बनाता है जैसे विचार एक महिला (इन्दिरा गाँधी) के मन में हीं जन्म ले सकते हैं।

Saturday, 19 February 2011

हिन्दू आतंकवादी के नाम एक पत्र

जब जनता के पास सुबह उठते हीं साबुन से लेकर रात में मच्छर मारने के लिए उपल्ब्ध उत्पादों के लिए अनेक विकल्प उपलब्ध हैं तो फिर आतंकवाद के मामले में इस्लामिक आतंकवाद का एकाधिकार कई लोगों को नागवार गुज़र रहा था। अगर मीडिया और अंवेषण संस्थाओं की बात मानी जाए तो अब जनता के पास मौत के लिए एक और विकल्प उपलब्ध हो गया है: हिन्दू आतंकवाद । इसकी जड़े कितनी गहरी हैं और इसके लिए इस्लामिक आतंकवाद की तरह के किसी सिंचाई प्रणाली का पानी इस्तेमाल हो रहा है या जगह जगह गड्ढों मे जमा पानी का, यह अभी प्रमाणिक रूप से तय नहीं हो पाया है। जिस प्रकार से इस्लामी आतंकी ज़िहाद जैसे पवित्र शब्द और कुरान के प्रेम से ओतप्रोत आयतों का अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर मतलब निकालते हैं वैसा हश्र गीता के श्लोकों के साथ करने में ये हिन्दू आतंकवादी अभी तक सफल नहीं हो पाए हैं। परंतु अगर आप गीता के प्रारम्भिक अध्यायों को देखें तो थोड़े बहुत झूठ एवं चालबाज़ी के साथ ये लोग भी उसका इस्तेमाल अपने मतलब के लिए कर सकते हैं। यह अत्यंत चिंताजनक है कि अगली पंक्ति के इस्लामी आतंकियों में से अधिकतर गरीब और मज़बूर परिवार से है पर अब तक जो नाम हिन्दू आतंकियों के आए हैं वे सभी सुखी सम्पन्न परिवार से हैं एवं इसे इस्लामी आतंकवाद के समाधान के रूप में एवं देशभक्ति से जोड़ कर देखते हैं। इससे पहले कि सम्प्रदायिकता ,जातिवाद, भ्रष्टाचार एवं ऐसे हीं अनगिनत घावों को झेल रहे युवा बेरोज़गारों के पास नक्सलवाद के साथ साथ रोजगार का एक और साधन उपलब्ध हो जाए उन्हें समझाना बुझाना होगा और बताना होगा कि सीमापार से आयातित आतंकवादियों और तथाकथित हिन्दू आतंकवादियों में कोई फर्क नहीं है। इसी चिंता के साथ मैंने एक पत्र लिखा है जो इस ब्लॉग के माध्यम से उस सिरफिरे तक पहुँचाना चाहता हूँ जो अपने को ‘देशभक्त’ हत्यारा साबित करने पर तुला हुआ है।

मेरे दयनीय भटके हुए भाई,
वन्दे मातरम। सुना है कि समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और अजमेर में खून तुमने हीं बहाया है? अगर यह बात गलत है तो माफ करना पर अगर सही है तो एक देशभक्त भारतीय होने के नाते मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ, उम्मीद है कि तुम सुनोगे। पर सबसे पहले एक बात साफ कर दूँ कि मैं किसी भी धार्मिक अथवा राजनैतिक संगठन का हिस्सा नहीं हूँ अत: मेरी बातों के लिए सिर्फ मैं और मेरा ज़मीर जिम्मेदार है। अगर समझने में तकलीफ हो तो टिप्पणी के माध्यम से स्पष्टीकरण माँग सकते हो।
क्या सोंच कर तुमने इस प्रकार का कदम उठाने की सोंची? तुम्हे क्या लगा कि इस प्रकार बदले की कार्यवाई से इस्लामी आतंकवादी डर जाएँगे? मेरे भाई उन्हें क्या फर्क पड़ता है अगर हिन्दुस्तान के सारे मुस्लिम मर जाएँ। उनकी लड़ाई भारतीय हिन्दुओं से नहीं है बल्की भारतीयों से है। उनके लिए हर भारतीय काफ़िर है और हरेक का कत्ल करना ज़िहाद।
अगर तुम भारतीयों के कत्ल से व्यथित हो तो इसके बदले में कुछ और भारतीयों का कत्ल करना कहाँ की बुद्धिमानी है। जब भारतीय संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ सिखाता है तो कम से कम अपने हीं देश के लोगों की हत्या करना भारतीयता तो कदापि नहीं हो सकता।
अगर तुम पाक अधिकृत काश्मीर जाकर उन हत्यारों के आकाओं को मार देते तो फिर अनगिनत भारतीयों की जान बचाने के लिए मैं तुम्हें देशभक्त मान सकता था।
अगर तुम उन अनगिनत आतंकवादियों के खिलाफ सबूत इकट्ठा कर उसे मिडिया के माध्यम से पुलिस तक पहुँचाते या फिर उनकी साज़िश को नाकाम करने में किसी प्रकार से काम आ जाते तो मैं तुम्हें अवश्य देशभक्त कहता।
अगर तुम लाखों भ्रष्ट भारतीयों को भ्रष्टाचार छोड़ने पर मज़बूर कर सकते तो भारत और भारतीयों को लूटने से बचाने के लिए मैं तुम्हें जरूर देशभक्त मानता।
अगर तुम उन अहसान फ़रामोश बेटों को अपने वृद्ध माता पिता को वृद्धाश्रमों से ससम्मान अपने पास रखने को मज़बूर कर सकते तो मैं तुम्हें देशभक्त मानता। आखिर जो हाड़ माँस की माँ को प्यार नहीं कर सकता वह इस मिट्टी की गूँगी धरती से प्यार कैसे कर सकता है?
अगर तुम लाखों बाल मज़दूरों की पढ़ाई सुनिश्चित कर सकते तो भारत का भविष्य उज्जवल करने के लिए मैं तुम्हें अवश्य देशभक्त मानता।
सूचि बड़ी लम्बी है, पर अफ़सोस है कि नफ़रत ने तुम्हे अन्धा कर दिया है। तुम्हें इस लम्बी सूचि के किसी भी रास्ते की बज़ाए हत्या करना उचित लगा। ईश्वर तुम्हें सदबुद्धि दे।

तुम्हारा शुभचिंतक
MARCH

Sunday, 7 November 2010

क्यों नहीं दिखता लोगों को मध्यमार्ग और यदि दिखता है तो वे चुप क्यों रहते हैं?

आप किसी भी मुद्दे को लिजिए, यदि वह विवादास्पद है तो आपको दुनिया दो खेमे में बँटी दिखेगी । जिनसे आप मुद्दों के सन्तुलित विश्लेषण की उम्मीद करते हैं, जैसे कि पत्रकार, शिक्षाविद, बुद्दिजीवी इत्यादि, वे भी आपको किसी न किसी खेमे के प्रतिनिधि के रूप में दिखेंगे । दोनों खेमों की बातों को सुनने के बाद आपको लगेगा कि दोनो सही बोल रहे है परंतु अर्धसत्य ! कोई भी पूर्ण सत्य नहीं बोल रहा है । वे भी एक दूसरे के सत्य बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है अथवा प्रतिपक्षी की बातों को झूठ साबित करने के लिए झूठ का सहारा भी ले रहे हैं । ऐसे में मेरे और आप जैसा आदमी उस खेमे के साथ हो लेता है जिसकी बातों मे अपेक्षाकृत सत्य की मात्रा ज्यादा होती है या फिर शुतुर्मुगी शांति की शरण ले लेता है। दोनों हीं बातें अनुचित हैं क्योंकि अगर किसी भी खेमे में ज़रा भी असत्य है तो हम भी उसके भागी बन जाते है। उसी तरह शुतुर्मुर्गी शांति धारण कर के हम अपने को तटस्थ तो रख लेते है पर उसके परिणाम से अपने आप को बचा नहीं पाते हैं ।

उदाहरण के तौर पर आजकल कई बुद्धीजीवी नक्सलियों के पक्ष में बयान पर बयान दिए जा रहे है। सरकार की नाकामी और उस से उपजे असंतोष की बात एक तरफ है पर उस असंतोष के समाधान के रूप में लोकतांत्रिक सरकार के विरोध मे खड़े निरंकुश, क्रूर और चालाक नक्सलियों का समर्थन करना दूसरी । सच्चाई इन दोनों बातों के बीच में कहीं खड़ी है जिसे हम और आप जैसे मध्यमार्गी समझ तो रहे है पर बोल कुछ नहीं रहे हैं । नेताओं का क्या है, वे जिस खेमें का पलड़ा भारी देखेंगे उस तरफ झुक जाएँगे। इस चक्कर में सच्चाई कहीं बीच मे पिस कर रह जाएगी।

उदाहरण के तौर पर एम. एफ. हुसैन की विवादास्पद कलाकृतियों को हीं ले। क्या देवीयों के नग्न चित्र बनाना जिसमें भारत माँ का चित्रण भी शामिल है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है अथवा हिन्दु संगठनों की माने तो उकसाने का प्रयास? यदि आप इन चित्रों का विरोध करते है तो उन चित्रों के विरोध में किए गए हिंसक प्रदर्शन का समर्थन भी? सच्चाई कहीं बीच में है । यदि इन चित्रों के समर्थन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तर्क सही है तो फिर इसका विरोध भी उसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करके होना चाहिए। ईंट का ज़वाब ईंट से दिया चाहिए यही सभ्य न्याय का तकाज़ा है, बारूद से नहीं । कई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झण्डाबरदार इन चित्रों का यह कह कर समर्थन कर रहें हैं कि सरस्वती, लक्ष्मी आदि काल्पनिक स्त्रियाँ हैं । खुद के विचार अन्यों से अलग रहते हुए भी हर किसी के विश्वास को उचित सम्मान देना हीं सच्ची धर्मनिरपेक्षता है, किसी के विश्वास की खिल्ली उड़ाना नहीं । धर्मनिरपेक्षता सभी के धर्मों को बिना चोट पहुँचाए, अपने धर्म का पालन करना है, चाहे वह नास्तिकता हीं क्यों न हो। पैगम्बर मुहम्मद के चित्र बनाना भी इसी धर्मनिरपेक्षता की मर्यादा का हनन है। फिर ऐसे चित्रों का क्या किया जाए जिसका विरोध करना कला प्रेमियों एवं तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को नागवार गुज़रता है? मेरे मन में एक विचार है, यदि दूसरे के नग्न चित्र बनाना कला की अभिव्यक्ति है तो फिर वह कोई भी हो सकता है। किसी मध्यमार्गी को चाहिए कि वह एम. एफ. हुसैन की माँ की भी वैसी तस्वीर बनाए । उनकी आदरणीय माँ की तस्वीर यदि किसी ने न देखी हो तो तस्वीर में वैसे शब्दों के द्वारा ऐसा लिख दिया जाए जैसा एम. एफ. हुसैन ने अपनी तस्वीरों मे लिखा है । एम. एफ. हुसैन एवं अन्य इस तरह के कलाप्रेमियों को इस तस्वीर की कलात्मक गुणवत्ता का विश्लेषण करने के लिए आमंत्रित किया जाए। यदि यह आपको न्यायोचित नहीं लग रहा है कृपया टिप्पणी दे कर अपनी बात को स्पष्ट करने की कृपा करें ।

एम. एफ. हुसैन बहुत हीं प्रसिद्ध चित्रकार हैं और उनके द्वारा बनाए गए चित्रों को मुँह माँगी रकम मिलती है। अच्छा है कला के लिए, इससे नवोदित कलाकारों को प्रेरणा मिलती है कि किसी दिन उनकी कलाकृतियाँ भी अच्छे दामों में बिकेंगी। पर उनका गुणगान यहीं तक सीमित रहना चाहिए, उनकी हर अच्छी बुरी आदतों का अनुकरण करना उनको सही ठहराना उनको देवता का स्थान देना है। मगर हमारा हीरो पूजक समाज ( इसके बारे में कभी विस्तार से लिखूँगा) दिशाहीन है, उसे हर सफल व्यक्ति का पिछ्लग्गू बनने में गरिमा महसूस होती है ।

अरून्धती के काश्मीर के बयान के बारे में मेरे विचार तो आप पढ़ ही चुके होंगे। पर यदि आप Internet पर इसी विषय पर चर्चा पढ़ेंगे तो आप पाएँगे की ब्लॉगरों ने और पाठकों ने अपशब्दों की झड़ी लगा दी है, कई तो उनका बलात्कार तक करने को आतुर हैं । अरून्धती को गालियाँ देने वाले भी समस्या को बिगाड़ने में लगे है यह उनके वैचारिक दिवालियेपन को दर्शाता है उनके पास कहने को कुछ नहीं है, वे लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने वाली अरून्धती से इस मामले में अधिक भिन्न नहीं हैं । उनसे अरून्धती का मुद्दों के आधार पर विरोध करने वाला खेमा कमज़ोर होता है। यदि आप उनकी इस हरकत को विरोध का तरीका बताते है तो आपको ख्याल रखना चाहिए की विरोध के इस तरीके से बलात्कारियों को वैचारिक समर्थन मिलता है, उन महिला विरोधियों को बल मिलता है जो महिलाओं को सीर्फ उपभोग की चीज़ मानते हैं और उनके विचारों का सीर्फ यह कह कर विरोध करते हैं कि वे महिला के हैं ।

Wednesday, 27 October 2010

Get Well Soon Arundhati Roy

Dear Ms Arundhati Roy,

This is in reference to your open letter published in The Hindu (page 15) on 27 October 2010. You have opined that you did not mean harm to India but instead wanted justice for the people of Kashmir. I think you take the problems prevalent in Kashmir very simple to base your judgment and opinions on and feel free to air your views thinking that you have all the inputs required to base your judgment on. The comments of readers in the Hindu the same day your letter was published should give you some more inputs to think again in a balanced manner and I would like to add more inputs to help you.

The military in Kashmir is not there out of its own will. It’s there because the militants are trained in military warfare by Pakistani agencies. You have said that in Kashmir the perpetrators of rapes and murder are not brought to justice. Would you please tell me in which part of India there is 100% success rate in solving of such cases? Would you please tell me in which part of India 100% of the population is living a happy and prosperous life? These incidents are used by separatists to instill the feeling in the hearts of Kashmiris that military is the sole reason for all their problems. Some of the stupid personnel of armed forces too act in irresponsible manner to give credibility to the fraudulent and false claims of separatists and thus aid them indirectly in spreading hatred against India. This lack of faith is too dangerous and chief of armed forces must think deep to correct such stray incidents which are always sought after by the separatists. Once people loose faith in them, they shall be blamed for every criminal activity in the state. Then it shall be very difficult for them to prove themselves innocent, particularly because the judiciary too would have lost faith of the common man due to the propaganda of the separatists.

One friend of mine who lives in Kashmir to run his sweets shop told me once that the stone palters get the supply of stones in trucks. These stone pelting incidents are not spontaneous but are doctored and staged by conspirators who misguide the local youth. The soldier who has gone there leaving the comforts of his home to do his duty too wants to live in peace and feels helpless by not being able to do anything while being stoned. Some of these soldiers while being silent in the day take the revenge when no body sees them. These soldiers too are human being and are definitely not Gandhians.

Do you assume that the Pak Occupied Kashmir is a heaven without any problems? If it seems so, it’s only because the problems there have not been compounded by terrorists from a foreign nation. Why don’t you go to Pak Occupied Kashmir and talk about justice for the victims of rapes and other crimes there? Why didn’t you go to the house of the brave girl who killed a terrorist recently? Have you enquired the Indian Government about what is it doing for her family’s security? Why didn’t you go to the families whose members have been killed by terrorists because they informed Armed Forces about some terrorists? Did you ask for justice to their families from Indian Government? I know why, because you are surrounded by the separatists who would not like you to see above their shoulders.

If Kashmir was never an intergral part of India, which of the Indian states were? Even what do you mean by India when you talk of India prior to Independence? I think you mean the India as is explained in Pakistani textbooks. Kashmir could not merge well with India because of the special status given to it. Had it been like every other state, it would have embraced India as its country long ago like other states did. People from other states would have gone there and people from Kashmir would have spread to other parts of India for business, employment etc and would have come out of the pre Independence regional mindset which thought of the province as the nation.

Problems are everywhere and I feel Kashmir enjoys a privileged status in India as far as attention of Government is concerned. Funds that should have been given to some of the underdeveloped states are diverted to Kashmir so that separatists do not get one more reason to spread hatred against India. Even then if it seems to be teeming with problems its because of the following reasons.

1) Unemployment and poverty of Pakistani citizen who find it better to die for a ‘cause’ with their family members and themselves feeding on dry fruits than due to hunger.

2) Imbalanced and myopic foreign policy of USA who sees the father of terrorists called Pakistan as its ally in fight against terrorism and indirectly funds ISI, the mother of terrorists.

3) Propaganda by separatists who are at present highly paid employees of the Pakistan Government and who see their future as some minister in so called aazaad Kashmir.

4) Stupid and तुनकमिज़ाज soldiers who do are not able to set aside their ego, frustration and anger for the larger cause of national integration.

5) Central as well as state politicians who are busier in increasing their personal bank balance than faith of the public in the system.

6) People who have their relatives in POK and think those two parts of Kashmir and their separated families can only be united once India withdraws from the state. Indian stance to maintain status quo on LOC makes them feel even more so.

7) People like you who enjoy a coveted fan following and who think that they can suggest solutions to the problems with just a few inputs without realizing that they are not normal human beings and their utterances shall be termed as gospel truth by the larger number of their blind followers.

What according to me is the solution to the Kashmir’s problem (I do not like to call ‘Kashmir problem’, It may have a problem like other states have but it’s not a problem in itself)?

Madam, I would not commit the same mistake that you did. I just would like to leave the judgment part to the Government and the researchers with a request for a balanced approach and would like to request you to help them rather than complicating their already mammoth task by speaking ‘your mind’ without much input and without realizing the sensitivity of the issue.

Anyway, I too do not support sedition charges against you but I expect Government to question you for such careless remarks despite being a celebrity and assist you in forming a balanced viewpoint by giving you inputs along with proofs (I understand Government is too busy hiding money from scams and scandals and diverting attention of general public from them). Till the time you will have to depend on self styled preachers like us J

Get well soon.

God bless India!

MARCH

Sunday, 25 April 2010

मैं अनाम रहना चाहता हूँ।

जी हाँ मैं अनाम रहना चाहता हूँ। क्योंकि तुम जोड़ दोगे कोई चिप्पी (Tag) हिन्दू, मुस्लिम, बिहारी, मद्रासी, शहरी, देहाती का ।

और जोड़ दोगे उसके साथ अपनी पूर्व गढ़ी हुई परिभाषाएँ जैसे कि मुस्लिम निर्दयी होते हैं, बिहारी भ्रष्ट होते हैं, पंजाबी झगड़ालू होते हैं, बंगाली आलसी होते हैं, मराठी बिहारियों के दुश्मन हैं इत्यादि।

क्योंकि तुमने गढ़ रखी है परिभाषा अपने हरेक चिप्पी के लिए।

तुम्हारे पास हरेक रंग की चिप्पी है धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय आदि इत्यादि के लिए बस उन रंगों को छोड़ कर जो तुम्हारे जैसे अन्य लोग तुम्हारे लिए बना कर रखे हुए हैं।

क्यों कि हरेक चिप्पी कत्ल कर देती है मेरी विशिष्टता (individuality) का और उस सत्य का कि मैं अलग हूँ । मेरी अच्छाइयाँ, मेरी बुराइयाँ (हाँ मैं एक साथ अच्छा और बुरा दोनो हो सकता हूँ क्योंकि मैं इंसान हूँ।) उतनी ही मेरी अपनी हैं और मेरे अन्य भाईयों से अलग हैं जितनी की मेरी शक्ल । मैं इंसान हूँ कोई Assembly Line से निकला हुआ उत्पाद नहीं । एक ही गर्भ से जन्मे दो भाई क्या एक जैसे होते है तो फिर एक परिवेश, जाति अथवा जगह में जन्में लोग एक कैसे हो सकते हैं । Assembly Line से निकले हुए उत्पाद भी कभी कभार अपने भाईयों से अलग बन जाते हैं, वरना गुणवता नियंत्रण विभाग की ज़रूरत हीं नहीं रहती ।
पर तुम क्यों मानोगे मेरी दलीलें, क्योंकि तुमने मान रखा है कि तुम सर्वश्रेष्ठ हो, तुममे कोई कमी नहीं है, कोई तुम पर उंगली नही उठा सकता है । क्योंकि तुम खुश हो यह मान कर कि तुम त्रुटिरहित (Perfect) हो तुममें सुधार कि कोई गुंजाईश नहीं । तुम्हारी हरेक कमियाँ न्यायोचित (justified) हैं । फिर भी एक विनती है, कभी इस मनोवृत्ति से बाहर निकल कर देखो। तुम पाओगे कि दुनिया वाले कितने भिन्न हैं एक दुसरे से, सबकी अपनी-अपनी कमियाँ है, अपने-अपने गुण हैं । और बच जाओगे अन्यायपूर्ण व्यवहार करने से। और बच जाओगे अन्यायपूर्ण व्यवहार पाने से क्यों कि लोग भी हटा देंगे तुम्हारे उपर से वह चिप्पी जो उन्होनें तुम पर लगा रखी है ।
तब तक मैं (M) अनाम (A) रहना (R) चाहता (C) हूँ (H)।

MARCH