Friday 7 February 2014
बलात्कार
Tuesday 28 January 2014
भ्रष्टाचारियों की आँखों का तारा : Contract Employment in Government Jobs
Monday 14 March 2011
महिला दिवस पर
कुछ दिन पहले महिला दिवस के कारण महिलाएँ एक बार फिर अख़बारों की सुर्खियों मे थी, पर इस बार कुछ अलग था। कुछ दिनों पूर्व हीं एक विमान यात्री ने यह कह कर तमाशा खड़ा कर दिया था कि वह उस विमान में यात्रा करके अपनी जान ज़ोखिम में नहीं डालना चाहता जिसको कि महिला चला रही हो। ‘जो अपना घर नहीं सम्भाल सकती वह विमान कैसे सम्भालेगी।‘ एक बात जो वह भूल गया था कि लोकतांत्रिक भारत में खुल्लम खुल्ला इस प्रकार के तालिबानी सोंच की कोई जगह नहीं है, इसलिए अंतत: उसे उस विमान में यात्रा करने के लिए उस विमान की सभी महिला कर्मचारियों से माफ़ी माँगनी पड़ी। और हाँ एक बात बताना तो मैं भूल हीं गया कि वह सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुँच गया परंतु महिला दिवस के दिन राधिका अपने कॉलेज तक पहुँचने के पहले हीं किसी मान ना मान मैं तेरा मेहमान types आशिक के हाथों भगवान के घर पहुँचा दी गई। पूरा देश हिल गया और दिल्ली में रहने वाले लड़कियों के पहले से ही डरे अभिभावक तो मानो अभी तक अपने आप को सम्भाल नहीं सके हैं।
हाँ एक बात और खास थी इस प्रकार के महिला दिवस में महिला दिवस के सौ साल पूरे हुए थे और तारीख थी: 08-03-11. 8+3=11 तो मैंने भी सोंचा MARCH को इस अति विशिष्ट मार्च की तारीख पर अपने विचार तो रखने हीं चाहिए।
मेरे पाठक जानते हैं कि मुझे किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह पसन्द नहीं है । जातिवाद, धर्मान्धता और क्षेत्रवाद जैसे पूर्वाग्रहों में अज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान रहता है, क्यों कि झुण्ड में रहने की मानवीय प्रवृति आपको दूसरे झुण्ड से दूर रखती है और आप विरोधी झुण्ड के प्रति तरह तरह की भावनाएँ गढ़ लेते है और जैसा चश्मा लगाएँगे वैसा दिखना भी शुरू हो जाता है । परंतु महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह तो इन पूर्वाग्रहों को भी मात दे जाति है। आखिर उस समूह के प्रति आप कैसे पूर्वाग्रह रख सकते है जिसका कोई सदस्य आपकी जन्मदाता, कोई आपकी बहन, कोई पत्नी और कोई बेटी के रूप में आपके जीवन का अभिन्न हिस्सा है???? जिनके अनगिनत अहसानों को आप मरते दम तक नहीं चुका सकते हैं । कहीं न कहीं तो भयानक गड़बड़ है उस मस्तिस्क में जिसमें इस प्रकार की पूर्वाग्रह का वास है।
बिन्दुवार उन पूर्वाग्रहों पर चर्चा करूँगा जो अपने समूह (यही एक समूह है मेरी जिसकी सदस्यता हिन्दी में लिखने के कारण मेरे पाठकों को उजागर हो चुकी है) के सदस्यों में मैंने देखी है।
महिलाओं को नौकरी नहीं करनी चाहिए।
एक प्रतिष्ठित कम्पनी में नौकरी के लिए साक्षात्कार के दौरान मेरे पास बैठे एक पुरूष उम्मीदवार ने कहा,”यार ये लड़कियाँ नौकरी लेने क्यों आ जाती हैं, यहाँ हम नौकरी के बेगैर भूखे मर रहें है और इन्हें एक हीं परिवार में डबल इनकम के लिए नौकरी चाहिए।“ मैं मुस्कुरा कर रह गया, क्यों कि एक भूखे को सहानुभूति की जरूरत होती है तर्क की नहीं। मेरी मुस्कुराहट को अपने तर्क की स्वीकृति मानते हुए वह आगे बोला,” सरकार को एक नियम बनाना चाहिए, एक परिवार में कोई एक हीं नौकरी करेगा, चाहे पति या पत्नी। “ मुझे लगा चलो बन्दा इतना तो मानने को तैयार है कि महिलाएँ नौकरी कर सकती हैं बशर्ते उनका पति बेरोज़गार हो। यानि उसको महिलाओं की योग्यता पर कोई शक नहीं था, उसका तर्क का एक प्रकार की समाजवादी धारणा से प्रेरित था, सभी परिवारों में चुल्हा जले, भले हीं आटा कोई लाए अथवा बर्तन कोई माँजे। वरना कई तो ऐसे मिल जाएँगे जो महिलाओं को बस चूल्हा चौका सम्भालने से ज्यादा किसी काबिल नहीं समझते।
इस बात में कोई शक नहीं है कि महिलाओं को नौकरी करनी चाहिए और ज़रूर करनी चाहिए। जो एक शिशु का पालन पोषण कर उसे इंसान बना सकती है वह दुनिया का कोई भी काम कर सकती है। इस बात में किसी तर्क वितर्क की जगह नहीं है। महिलाओं के कार्यालय मे आने से आने वाले फर्कों को रेखांकित करना चाहूँगा:
कार्यालय का माहौल सभ्य हो जाता है: कोई माँ बहन की गालियाँ नहीं निकालता, ना बॉस अपने अधिनस्थों को ना कोई अपने सहकर्मीयों को। गर्मी के दिनों में सभी कर्मचारियों की कमीज़ उनके देह पर हीं विराजमान होती है उपर की एकाध बटन खुलती भी है तो किसी किसी की और कभी-कभार।
प्रतियोगिता का माहौल बनता है: कभी कभी किसी सुन्दर महिला के कारण उसके सहकर्मी अथवा अधिनस्थ पुरूषों के बीच अथवा एक काबिल महिला और उसके सहकर्मी पुरूषों के बीच। आखिर कोई भी ‘स्वाभिमानी’ पुरूष कार्य के क्षेत्र में महिला से हारना नहीं चाहता। अब यह बात अलग है कि कभी कभार कुछ कमज़ोर मानसिकता वाले पुरूषों के लिए यह विघ्नकारी साबित होता है, पर इसके लिए महिलाओं को दोष देना उचित नहीं है।
विक्रय, ग्राहक सेवा, स्वागत विभागों में महिलाओं का मुकाबला पुरूष कभी नहीं कर सकते। संवेदनशीलता, सम्मत करने जैसे हुनरों में महिलाएँ पुरूषों से कहीं आगे हैं। एक शैतान बच्चे की माँ का धैर्य क्या एक पुरूष के पास हो सकता है कभी?
महिलाएँ काम की वस्तु मात्र हैं
अब ऐसा वाहियात तर्क तो इस पृथ्वी का निकृष्टतम प्राणी मात्र मनुष्य हीं दे सकता है। क्योंकि जहाँ तक मुझे मालूम है अन्य कई अपराधों की तरह बलात्कार भी मात्र मानव जाति तक हीं सीमित है। इस प्रकार के तर्क देने वालों के लिए महिलाएँ एक निर्जीव वस्तु मात्र हैं । अत्यंत हीं अमानवीय और घृणित तरीके से किए गए बलात्कार के समाचार इस बात की पुष्टी करते हैं कि हमारे समाज में इंसान के रूप में कुछ ऐसे लोग भी रहते हैं जिन्हे मानसिकता के लिहाज़ से जानवर भी अपनी श्रेणी में रखना अपनी तौहिन समझेंगे। धन्य हैं वे कुछ देवियाँ जो बदनाम गलियों में इनका ज़हर निकालती रहती हैं, वरना गलियों में हमारी आपकी माँ-बहनों का चलना दूभर हो जाए। अरूणा शानबॉग की हालत देख कर शर्म से सिर झुक जाता है।
महिलाओं के यौन शोषण का अर्थ मात्र बलात्कार नहीं होता। इस विषय में पुरूषों को उचित शिक्षा देने की हर कार्यालय और संस्थान में कोशिशें हो रही हैं। अगर कुछ शरारती महिलाओं द्वारा इन नियमों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया जाता है तो इसमें इन नियमों को दोष देना उचित नहीं। अब अगर अन्य क्षेत्रों में महिलाएँ यदि पुरूषों की बराबरी कर सकती हैं तो फिर मौकापरस्ती और धोखेबाज़ी में क्यों नहीं।
महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए
अगर किसी क्षेत्र में महिलाओं के आने की सबसे ज्यादा ज़रूरत है तो वह है राजनिति। कुर्सी तोड़ते और एक दूसरे का कुर्ता फाड़ते राजनेताओं को देखकर हम उकता गए हैं। अब एक दूसरे की चोटी खींचते राजनेताओं को देखने की बड़ी इच्छा हैJ Jokes apart, अपराधी तत्वों में कुछ न कुछ तो कमी होगी हीं। जब हम मानव निर्मित श्रेणी जैसे कि जाति, धर्म आदि के आधार पर सीटों के आरक्षण की बात कर सकते हैं तो प्रकृति निर्मित लिंग के आधार पर क्यों नहीं। जो घर का बज़ट बना सकती है वह देश का बज़ट क्यों नहीं? जब वे टेलिविजन पर समाचारों का विश्लेषण कर सकती हैं तो उन समाचारों को बना क्यों नहीं सकती हैं?
महिलाएँ पुरूषो के बराबर हीं नहीं उनसे कहीं आगे निकल सकती हैं । हर वर्ष शैक्षणिक परीक्षाओं में महिलाओं का उत्तीर्णता के प्रतिशत अथवा अंकों के मामले में महिलाएँ पुरूषों को कहीं पीछे छोड़ देती हैं। अब पुरूषों को क्रिकेट, आवारागर्दी, सिनेमा और नशे से समय मिले तब तो पढ़ाई करें। मेरा तो मानना है कि कुछ पुरूष तो ऐसे निकम्मे होते हैं कि यदि उस नवयुवक की बात मान कर सरकार नौकरी के लिए इस प्रकार का कोई नियम बना दे तो ऐसे पुरूष अपनी पत्नी से चूल्हे चौके के साथ साथ नौकरी भी करवाएँगे और खुद किसी शराबखाने, कोठे, जुए के अड्डे अथवा नुक्कड़ के बैठक में डिंग हाँक कर अपने पुरूष होने का ढिंढोरा पिटते नज़र आएँगे। अगर इश्वर ने पुरूषों को शारिरिक रूप से सबल बनाया है तो महिलाओं को मानसिक रूप से। उनका अपने मन पर जितना नियंत्रण है उतना पुरूषों का नहीं। ‘अनुशासन हीं देश को महान बनाता है’ जैसे विचार एक महिला (इन्दिरा गाँधी) के मन में हीं जन्म ले सकते हैं।
Saturday 19 February 2011
हिन्दू आतंकवादी के नाम एक पत्र
मेरे दयनीय भटके हुए भाई,
वन्दे मातरम। सुना है कि समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और अजमेर में खून तुमने हीं बहाया है? अगर यह बात गलत है तो माफ करना पर अगर सही है तो एक देशभक्त भारतीय होने के नाते मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ, उम्मीद है कि तुम सुनोगे। पर सबसे पहले एक बात साफ कर दूँ कि मैं किसी भी धार्मिक अथवा राजनैतिक संगठन का हिस्सा नहीं हूँ अत: मेरी बातों के लिए सिर्फ मैं और मेरा ज़मीर जिम्मेदार है। अगर समझने में तकलीफ हो तो टिप्पणी के माध्यम से स्पष्टीकरण माँग सकते हो।
क्या सोंच कर तुमने इस प्रकार का कदम उठाने की सोंची? तुम्हे क्या लगा कि इस प्रकार बदले की कार्यवाई से इस्लामी आतंकवादी डर जाएँगे? मेरे भाई उन्हें क्या फर्क पड़ता है अगर हिन्दुस्तान के सारे मुस्लिम मर जाएँ। उनकी लड़ाई भारतीय हिन्दुओं से नहीं है बल्की भारतीयों से है। उनके लिए हर भारतीय काफ़िर है और हरेक का कत्ल करना ज़िहाद।
अगर तुम भारतीयों के कत्ल से व्यथित हो तो इसके बदले में कुछ और भारतीयों का कत्ल करना कहाँ की बुद्धिमानी है। जब भारतीय संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ सिखाता है तो कम से कम अपने हीं देश के लोगों की हत्या करना भारतीयता तो कदापि नहीं हो सकता।
अगर तुम पाक अधिकृत काश्मीर जाकर उन हत्यारों के आकाओं को मार देते तो फिर अनगिनत भारतीयों की जान बचाने के लिए मैं तुम्हें देशभक्त मान सकता था।
अगर तुम उन अनगिनत आतंकवादियों के खिलाफ सबूत इकट्ठा कर उसे मिडिया के माध्यम से पुलिस तक पहुँचाते या फिर उनकी साज़िश को नाकाम करने में किसी प्रकार से काम आ जाते तो मैं तुम्हें अवश्य देशभक्त कहता।
अगर तुम लाखों भ्रष्ट भारतीयों को भ्रष्टाचार छोड़ने पर मज़बूर कर सकते तो भारत और भारतीयों को लूटने से बचाने के लिए मैं तुम्हें जरूर देशभक्त मानता।
अगर तुम उन अहसान फ़रामोश बेटों को अपने वृद्ध माता पिता को वृद्धाश्रमों से ससम्मान अपने पास रखने को मज़बूर कर सकते तो मैं तुम्हें देशभक्त मानता। आखिर जो हाड़ माँस की माँ को प्यार नहीं कर सकता वह इस मिट्टी की गूँगी धरती से प्यार कैसे कर सकता है?
अगर तुम लाखों बाल मज़दूरों की पढ़ाई सुनिश्चित कर सकते तो भारत का भविष्य उज्जवल करने के लिए मैं तुम्हें अवश्य देशभक्त मानता।
सूचि बड़ी लम्बी है, पर अफ़सोस है कि नफ़रत ने तुम्हे अन्धा कर दिया है। तुम्हें इस लम्बी सूचि के किसी भी रास्ते की बज़ाए हत्या करना उचित लगा। ईश्वर तुम्हें सदबुद्धि दे।
तुम्हारा शुभचिंतक
MARCH
Sunday 7 November 2010
क्यों नहीं दिखता लोगों को मध्यमार्ग और यदि दिखता है तो वे चुप क्यों रहते हैं?
आप किसी भी मुद्दे को लिजिए, यदि वह विवादास्पद है तो आपको दुनिया दो खेमे में बँटी दिखेगी । जिनसे आप मुद्दों के सन्तुलित विश्लेषण की उम्मीद करते हैं, जैसे कि पत्रकार, शिक्षाविद, बुद्दिजीवी इत्यादि, वे भी आपको किसी न किसी खेमे के प्रतिनिधि के रूप में दिखेंगे । दोनों खेमों की बातों को सुनने के बाद आपको लगेगा कि दोनो सही बोल रहे है परंतु अर्धसत्य ! कोई भी पूर्ण सत्य नहीं बोल रहा है । वे भी एक दूसरे के सत्य बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है अथवा प्रतिपक्षी की बातों को झूठ साबित करने के लिए झूठ का सहारा भी ले रहे हैं । ऐसे में मेरे और आप जैसा आदमी उस खेमे के साथ हो लेता है जिसकी बातों मे अपेक्षाकृत सत्य की मात्रा ज्यादा होती है या फिर शुतुर्मुगी शांति की शरण ले लेता है। दोनों हीं बातें अनुचित हैं क्योंकि अगर किसी भी खेमे में ज़रा भी असत्य है तो हम भी उसके भागी बन जाते है। उसी तरह शुतुर्मुर्गी शांति धारण कर के हम अपने को तटस्थ तो रख लेते है पर उसके परिणाम से अपने आप को बचा नहीं पाते हैं ।
उदाहरण के तौर पर आजकल कई बुद्धीजीवी नक्सलियों के पक्ष में बयान पर बयान दिए जा रहे है। सरकार की नाकामी और उस से उपजे असंतोष की बात एक तरफ है पर उस असंतोष के समाधान के रूप में लोकतांत्रिक सरकार के विरोध मे खड़े निरंकुश, क्रूर और चालाक नक्सलियों का समर्थन करना दूसरी । सच्चाई इन दोनों बातों के बीच में कहीं खड़ी है जिसे हम और आप जैसे मध्यमार्गी समझ तो रहे है पर बोल कुछ नहीं रहे हैं । नेताओं का क्या है, वे जिस खेमें का पलड़ा भारी देखेंगे उस तरफ झुक जाएँगे। इस चक्कर में सच्चाई कहीं बीच मे पिस कर रह जाएगी।
उदाहरण के तौर पर एम. एफ. हुसैन की विवादास्पद कलाकृतियों को हीं ले। क्या देवीयों के नग्न चित्र बनाना जिसमें भारत ‘माँ’ का चित्रण भी शामिल है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है अथवा हिन्दु संगठनों की माने तो उकसाने का प्रयास? यदि आप इन चित्रों का विरोध करते है तो उन चित्रों के विरोध में किए गए हिंसक प्रदर्शन का समर्थन भी? सच्चाई कहीं बीच में है । यदि इन चित्रों के समर्थन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तर्क सही है तो फिर इसका विरोध भी उसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करके होना चाहिए। ईंट का ज़वाब ईंट से दिया चाहिए यही सभ्य न्याय का तकाज़ा है, बारूद से नहीं । कई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झण्डाबरदार इन चित्रों का यह कह कर समर्थन कर रहें हैं कि सरस्वती, लक्ष्मी आदि काल्पनिक स्त्रियाँ हैं । खुद के विचार अन्यों से अलग रहते हुए भी हर किसी के विश्वास को उचित सम्मान देना हीं सच्ची धर्मनिरपेक्षता है, किसी के विश्वास की खिल्ली उड़ाना नहीं । धर्मनिरपेक्षता सभी के धर्मों को बिना चोट पहुँचाए, अपने धर्म का पालन करना है, चाहे वह नास्तिकता हीं क्यों न हो। पैगम्बर मुहम्मद के चित्र बनाना भी इसी धर्मनिरपेक्षता की मर्यादा का हनन है। फिर ऐसे चित्रों का क्या किया जाए जिसका विरोध करना कला प्रेमियों एवं तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को नागवार गुज़रता है? मेरे मन में एक विचार है, यदि दूसरे के नग्न चित्र बनाना कला की अभिव्यक्ति है तो फिर वह कोई भी हो सकता है। किसी मध्यमार्गी को चाहिए कि वह एम. एफ. हुसैन की माँ की भी वैसी तस्वीर बनाए । उनकी आदरणीय माँ की तस्वीर यदि किसी ने न देखी हो तो तस्वीर में वैसे शब्दों के द्वारा ऐसा लिख दिया जाए जैसा एम. एफ. हुसैन ने अपनी तस्वीरों मे लिखा है । एम. एफ. हुसैन एवं अन्य इस तरह के कलाप्रेमियों को इस तस्वीर की कलात्मक गुणवत्ता का विश्लेषण करने के लिए आमंत्रित किया जाए। यदि यह आपको न्यायोचित नहीं लग रहा है कृपया टिप्पणी दे कर अपनी बात को स्पष्ट करने की कृपा करें ।
एम. एफ. हुसैन बहुत हीं प्रसिद्ध चित्रकार हैं और उनके द्वारा बनाए गए चित्रों को मुँह माँगी रकम मिलती है। अच्छा है कला के लिए, इससे नवोदित कलाकारों को प्रेरणा मिलती है कि किसी दिन उनकी कलाकृतियाँ भी अच्छे दामों में बिकेंगी। पर उनका गुणगान यहीं तक सीमित रहना चाहिए, उनकी हर अच्छी बुरी आदतों का अनुकरण करना उनको सही ठहराना उनको देवता का स्थान देना है। मगर हमारा हीरो पूजक समाज ( इसके बारे में कभी विस्तार से लिखूँगा) दिशाहीन है, उसे हर सफल व्यक्ति का पिछ्लग्गू बनने में गरिमा महसूस होती है ।
अरून्धती के काश्मीर के बयान के बारे में मेरे विचार तो आप पढ़ ही चुके होंगे। पर यदि आप Internet पर इसी विषय पर चर्चा पढ़ेंगे तो आप पाएँगे की ब्लॉगरों ने और पाठकों ने अपशब्दों की झड़ी लगा दी है, कई तो उनका बलात्कार तक करने को आतुर हैं । अरून्धती को गालियाँ देने वाले भी समस्या को बिगाड़ने में लगे है यह उनके वैचारिक दिवालियेपन को दर्शाता है उनके पास कहने को कुछ नहीं है, वे लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने वाली अरून्धती से इस मामले में अधिक भिन्न नहीं हैं । उनसे अरून्धती का मुद्दों के आधार पर विरोध करने वाला खेमा कमज़ोर होता है। यदि आप उनकी इस हरकत को विरोध का तरीका बताते है तो आपको ख्याल रखना चाहिए की विरोध के इस तरीके से बलात्कारियों को वैचारिक समर्थन मिलता है, उन महिला विरोधियों को बल मिलता है जो महिलाओं को सीर्फ उपभोग की ‘चीज़’ मानते हैं और उनके विचारों का सीर्फ यह कह कर विरोध करते हैं कि वे महिला के हैं ।
Wednesday 27 October 2010
Get Well Soon Arundhati Roy
Dear Ms Arundhati Roy,
This is in reference to your open letter published in The Hindu (page 15) on 27 October 2010. You have opined that you did not mean harm to
The military in
One friend of mine who lives in Kashmir to run his sweets shop told me once that the stone palters get the supply of stones in trucks. These stone pelting incidents are not spontaneous but are doctored and staged by conspirators who misguide the local youth. The soldier who has gone there leaving the comforts of his home to do his duty too wants to live in peace and feels helpless by not being able to do anything while being stoned. Some of these soldiers while being silent in the day take the revenge when no body sees them. These soldiers too are human being and are definitely not Gandhians.
Do you assume that the Pak Occupied Kashmir is a heaven without any problems? If it seems so, it’s only because the problems there have not been compounded by terrorists from a foreign nation. Why don’t you go to Pak Occupied Kashmir and talk about justice for the victims of rapes and other crimes there? Why didn’t you go to the house of the brave girl who killed a terrorist recently? Have you enquired the Indian Government about what is it doing for her family’s security? Why didn’t you go to the families whose members have been killed by terrorists because they informed Armed Forces about some terrorists? Did you ask for justice to their families from Indian Government? I know why, because you are surrounded by the separatists who would not like you to see above their shoulders.
If Kashmir was never an intergral part of
Problems are everywhere and I feel Kashmir enjoys a privileged status in
1) Unemployment and poverty of Pakistani citizen who find it better to die for a ‘cause’ with their family members and themselves feeding on dry fruits than due to hunger.
2) Imbalanced and myopic foreign policy of
3) Propaganda by separatists who are at present highly paid employees of the Pakistan Government and who see their future as some minister in so called aazaad Kashmir.
4) Stupid and तुनकमिज़ाज soldiers who do are not able to set aside their ego, frustration and anger for the larger cause of national integration.
5) Central as well as state politicians who are busier in increasing their personal bank balance than faith of the public in the system.
6) People who have their relatives in POK and think those two parts of Kashmir and their separated families can only be united once
7) People like you who enjoy a coveted fan following and who think that they can suggest solutions to the problems with just a few inputs without realizing that they are not normal human beings and their utterances shall be termed as gospel truth by the larger number of their blind followers.
What according to me is the solution to the Kashmir’s problem (I do not like to call ‘
Madam, I would not commit the same mistake that you did. I just would like to leave the judgment part to the Government and the researchers with a request for a balanced approach and would like to request you to help them rather than complicating their already mammoth task by speaking ‘your mind’ without much input and without realizing the sensitivity of the issue.
Anyway, I too do not support sedition charges against you but I expect Government to question you for such careless remarks despite being a celebrity and assist you in forming a balanced viewpoint by giving you inputs along with proofs (I understand Government is too busy hiding money from scams and scandals and diverting attention of general public from them). Till the time you will have to depend on self styled preachers like us J
Get well soon.
God bless
MARCH
Sunday 25 April 2010
मैं अनाम रहना चाहता हूँ।
और जोड़ दोगे उसके साथ अपनी पूर्व गढ़ी हुई परिभाषाएँ जैसे कि मुस्लिम निर्दयी होते हैं, बिहारी भ्रष्ट होते हैं, पंजाबी झगड़ालू होते हैं, बंगाली आलसी होते हैं, मराठी बिहारियों के दुश्मन हैं इत्यादि।
क्योंकि तुमने गढ़ रखी है परिभाषा अपने हरेक चिप्पी के लिए।
तुम्हारे पास हरेक रंग की चिप्पी है धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय आदि इत्यादि के लिए बस उन रंगों को छोड़ कर जो तुम्हारे जैसे अन्य लोग तुम्हारे लिए बना कर रखे हुए हैं।
क्यों कि हरेक चिप्पी कत्ल कर देती है मेरी विशिष्टता (individuality) का और उस सत्य का कि मैं अलग हूँ । मेरी अच्छाइयाँ, मेरी बुराइयाँ (हाँ मैं एक साथ अच्छा और बुरा दोनो हो सकता हूँ क्योंकि मैं इंसान हूँ।) उतनी ही मेरी अपनी हैं और मेरे अन्य भाईयों से अलग हैं जितनी की मेरी शक्ल । मैं इंसान हूँ कोई Assembly Line से निकला हुआ उत्पाद नहीं । एक ही गर्भ से जन्मे दो भाई क्या एक जैसे होते है तो फिर एक परिवेश, जाति अथवा जगह में जन्में लोग एक कैसे हो सकते हैं । Assembly Line से निकले हुए उत्पाद भी कभी कभार अपने भाईयों से अलग बन जाते हैं, वरना गुणवता नियंत्रण विभाग की ज़रूरत हीं नहीं रहती ।
पर तुम क्यों मानोगे मेरी दलीलें, क्योंकि तुमने मान रखा है कि तुम सर्वश्रेष्ठ हो, तुममे कोई कमी नहीं है, कोई तुम पर उंगली नही उठा सकता है । क्योंकि तुम खुश हो यह मान कर कि तुम त्रुटिरहित (Perfect) हो तुममें सुधार कि कोई गुंजाईश नहीं । तुम्हारी हरेक कमियाँ न्यायोचित (justified) हैं । फिर भी एक विनती है, कभी इस मनोवृत्ति से बाहर निकल कर देखो। तुम पाओगे कि दुनिया वाले कितने भिन्न हैं एक दुसरे से, सबकी अपनी-अपनी कमियाँ है, अपने-अपने गुण हैं । और बच जाओगे अन्यायपूर्ण व्यवहार करने से। और बच जाओगे अन्यायपूर्ण व्यवहार पाने से क्यों कि लोग भी हटा देंगे तुम्हारे उपर से वह चिप्पी जो उन्होनें तुम पर लगा रखी है ।
तब तक मैं (M) अनाम (A) रहना (R) चाहता (C) हूँ (H)।
MARCH