Sunday 7 November 2010

क्यों नहीं दिखता लोगों को मध्यमार्ग और यदि दिखता है तो वे चुप क्यों रहते हैं?

आप किसी भी मुद्दे को लिजिए, यदि वह विवादास्पद है तो आपको दुनिया दो खेमे में बँटी दिखेगी । जिनसे आप मुद्दों के सन्तुलित विश्लेषण की उम्मीद करते हैं, जैसे कि पत्रकार, शिक्षाविद, बुद्दिजीवी इत्यादि, वे भी आपको किसी न किसी खेमे के प्रतिनिधि के रूप में दिखेंगे । दोनों खेमों की बातों को सुनने के बाद आपको लगेगा कि दोनो सही बोल रहे है परंतु अर्धसत्य ! कोई भी पूर्ण सत्य नहीं बोल रहा है । वे भी एक दूसरे के सत्य बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है अथवा प्रतिपक्षी की बातों को झूठ साबित करने के लिए झूठ का सहारा भी ले रहे हैं । ऐसे में मेरे और आप जैसा आदमी उस खेमे के साथ हो लेता है जिसकी बातों मे अपेक्षाकृत सत्य की मात्रा ज्यादा होती है या फिर शुतुर्मुगी शांति की शरण ले लेता है। दोनों हीं बातें अनुचित हैं क्योंकि अगर किसी भी खेमे में ज़रा भी असत्य है तो हम भी उसके भागी बन जाते है। उसी तरह शुतुर्मुर्गी शांति धारण कर के हम अपने को तटस्थ तो रख लेते है पर उसके परिणाम से अपने आप को बचा नहीं पाते हैं ।

उदाहरण के तौर पर आजकल कई बुद्धीजीवी नक्सलियों के पक्ष में बयान पर बयान दिए जा रहे है। सरकार की नाकामी और उस से उपजे असंतोष की बात एक तरफ है पर उस असंतोष के समाधान के रूप में लोकतांत्रिक सरकार के विरोध मे खड़े निरंकुश, क्रूर और चालाक नक्सलियों का समर्थन करना दूसरी । सच्चाई इन दोनों बातों के बीच में कहीं खड़ी है जिसे हम और आप जैसे मध्यमार्गी समझ तो रहे है पर बोल कुछ नहीं रहे हैं । नेताओं का क्या है, वे जिस खेमें का पलड़ा भारी देखेंगे उस तरफ झुक जाएँगे। इस चक्कर में सच्चाई कहीं बीच मे पिस कर रह जाएगी।

उदाहरण के तौर पर एम. एफ. हुसैन की विवादास्पद कलाकृतियों को हीं ले। क्या देवीयों के नग्न चित्र बनाना जिसमें भारत माँ का चित्रण भी शामिल है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है अथवा हिन्दु संगठनों की माने तो उकसाने का प्रयास? यदि आप इन चित्रों का विरोध करते है तो उन चित्रों के विरोध में किए गए हिंसक प्रदर्शन का समर्थन भी? सच्चाई कहीं बीच में है । यदि इन चित्रों के समर्थन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तर्क सही है तो फिर इसका विरोध भी उसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करके होना चाहिए। ईंट का ज़वाब ईंट से दिया चाहिए यही सभ्य न्याय का तकाज़ा है, बारूद से नहीं । कई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झण्डाबरदार इन चित्रों का यह कह कर समर्थन कर रहें हैं कि सरस्वती, लक्ष्मी आदि काल्पनिक स्त्रियाँ हैं । खुद के विचार अन्यों से अलग रहते हुए भी हर किसी के विश्वास को उचित सम्मान देना हीं सच्ची धर्मनिरपेक्षता है, किसी के विश्वास की खिल्ली उड़ाना नहीं । धर्मनिरपेक्षता सभी के धर्मों को बिना चोट पहुँचाए, अपने धर्म का पालन करना है, चाहे वह नास्तिकता हीं क्यों न हो। पैगम्बर मुहम्मद के चित्र बनाना भी इसी धर्मनिरपेक्षता की मर्यादा का हनन है। फिर ऐसे चित्रों का क्या किया जाए जिसका विरोध करना कला प्रेमियों एवं तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को नागवार गुज़रता है? मेरे मन में एक विचार है, यदि दूसरे के नग्न चित्र बनाना कला की अभिव्यक्ति है तो फिर वह कोई भी हो सकता है। किसी मध्यमार्गी को चाहिए कि वह एम. एफ. हुसैन की माँ की भी वैसी तस्वीर बनाए । उनकी आदरणीय माँ की तस्वीर यदि किसी ने न देखी हो तो तस्वीर में वैसे शब्दों के द्वारा ऐसा लिख दिया जाए जैसा एम. एफ. हुसैन ने अपनी तस्वीरों मे लिखा है । एम. एफ. हुसैन एवं अन्य इस तरह के कलाप्रेमियों को इस तस्वीर की कलात्मक गुणवत्ता का विश्लेषण करने के लिए आमंत्रित किया जाए। यदि यह आपको न्यायोचित नहीं लग रहा है कृपया टिप्पणी दे कर अपनी बात को स्पष्ट करने की कृपा करें ।

एम. एफ. हुसैन बहुत हीं प्रसिद्ध चित्रकार हैं और उनके द्वारा बनाए गए चित्रों को मुँह माँगी रकम मिलती है। अच्छा है कला के लिए, इससे नवोदित कलाकारों को प्रेरणा मिलती है कि किसी दिन उनकी कलाकृतियाँ भी अच्छे दामों में बिकेंगी। पर उनका गुणगान यहीं तक सीमित रहना चाहिए, उनकी हर अच्छी बुरी आदतों का अनुकरण करना उनको सही ठहराना उनको देवता का स्थान देना है। मगर हमारा हीरो पूजक समाज ( इसके बारे में कभी विस्तार से लिखूँगा) दिशाहीन है, उसे हर सफल व्यक्ति का पिछ्लग्गू बनने में गरिमा महसूस होती है ।

अरून्धती के काश्मीर के बयान के बारे में मेरे विचार तो आप पढ़ ही चुके होंगे। पर यदि आप Internet पर इसी विषय पर चर्चा पढ़ेंगे तो आप पाएँगे की ब्लॉगरों ने और पाठकों ने अपशब्दों की झड़ी लगा दी है, कई तो उनका बलात्कार तक करने को आतुर हैं । अरून्धती को गालियाँ देने वाले भी समस्या को बिगाड़ने में लगे है यह उनके वैचारिक दिवालियेपन को दर्शाता है उनके पास कहने को कुछ नहीं है, वे लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने वाली अरून्धती से इस मामले में अधिक भिन्न नहीं हैं । उनसे अरून्धती का मुद्दों के आधार पर विरोध करने वाला खेमा कमज़ोर होता है। यदि आप उनकी इस हरकत को विरोध का तरीका बताते है तो आपको ख्याल रखना चाहिए की विरोध के इस तरीके से बलात्कारियों को वैचारिक समर्थन मिलता है, उन महिला विरोधियों को बल मिलता है जो महिलाओं को सीर्फ उपभोग की चीज़ मानते हैं और उनके विचारों का सीर्फ यह कह कर विरोध करते हैं कि वे महिला के हैं ।

5 comments:

Atoorva said...

Opinions are like blogs, everybody has one. Most ...again like blogs are totally uncomprehensible and not worth visiting twice . Do not worry so much about fundamentaalist /extremist opinions ...very few actually mean them and even fewer can live them in their lives . They are usually a manifestation of people's greed, selfishness and planning to achieve fame(through notoriety) and power .

संगीता पुरी said...

इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

DIMPLE SHARMA said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति....
sparkindians.blogspot.com

Unknown said...

सच को जानने का जतन होना चाहिए।

शुक्रिया।

MARCH said...

@all others. प्रशंसा के लिए धन्यवाद!
@Atoorva ji,
Had these opinions been confined to the dining room discussions of someone’s house, it would never have been a matter of worry. But problem arises when because of our silence the opportunist and fickle minded politicians fail to take a balanced stand. Take the example of Maharashtra, Assam etc and the hate politics being played there. Or it’s even better to take the example of the previous militancy in Punjab. It seems from the actions and speeches that they are shying away from calling a spade, a spade. This is because even if they know what is right they don’t hear any noises in support of the right and the balanced approach. They wait and watch. This is what I meant by “नेताओं का क्या है, वे जिस खेमें का पलड़ा भारी देखेंगे उस तरफ झुक जाएँगे।“. This is dangerous in democracy. Ironically Those who follow this मध्यमार्ग too feel lonely and don’t go out to express their opinion in the form of vote as they don’t find any candidate representing their thinking on issues. Therefore these मध्यमार्गी people need to make their voices loud enough to be heard. I believe the number of such people with balanced mind is more than those with extremist tendencies and even if they murmur that will definitely become more audible than the shouting of handful of extremists.
I am sorry but I do not agree with your view “very few actually mean them and even fewer can live them in their lives”. You pick up any kind of a negative ideology or profession like extremism, pickpocketing, corruption etc. ‘Honesty’ and dedication is the strength of these cartels. Terrorists are more honest about their commitment to fulfill the promise made to their master than a policeman to the oath taken at the time of recruitment. There is always honesty in dealings between thieves, pickpockets and dacoits. The advocates of positive tendencies are not so honest [about following and advocating for their ideology] and united as their enemies in the negative world If one is talking of honesty or a balanced viewpoint, you may ignore him but not a mad man with stone aimed at you. These are like mad men- mad after money, fame, power or due to hatred or hunger.
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