Friday 7 February 2014

बलात्कार

I had written this post after the Nirbhaya incident but could not post this in time.
दरिन्दगी से हाल में किए गए बलात्कार ने एक बार फिर से लोगों को सड़कों पर आने को मजबूर कर दिया है। कई सवालों पर मिडीया और इंटरनेट पर लोगों के विचारों की बाढ़ आनी शुरू हो गई है। और इस बाढ़ में सामान्य बाढ़ की तरह ही नदी के साथ नालों का पानी भी साफ नजर आ रहा है। इस घृणित कुकृत्य के उपर मेरे विचार जानने से पहले जरा इन नालों के पानी पर भी गौर कर लें।

चिप्पी लगाए जा
हमारी हरेक आदमी पर राज्य, धर्म, जाति आदि के Tag लगाने की प्रवृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि हम अच्छे बुरे हर समय में अपनी इस प्रवृति को अपने उपर हावी होने को रोक नहीं पाते हैं। इससे मिडीया के लोग भी अछूते नहीं हैं। मगर इसका खुला प्रदर्शन देखना हो तो इंटरनेट और खास तौर पर फेसबुक पर देखें। जरा गौर करें इस घटना को किस तरह से लोग इंटरनेट पर बयान कर रहे हैं। पीड़िता के आत्म सम्मान का ख़्याल न रखते हुए इसको बड़े ही चित्रात्मक ढ़ंग से प्रस्तुत करने के साथ-साथ लोग बलात्कारियों के लिए जितने ज्यादा से ज्यादा Tags हो सकते हैं उतना जोड़ने की कोशिश करते देखे जा सकते हैं। “वे सब्जी वाले थे.. इतने लोग बिहारी थे” इत्यादि। कई तो सभी बलात्कारियों को “बिहारी” बताने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं जबकि यह सत्य नहीं है। जैसा कि हर Tag का उद्देश्य होता है इन Tags ने भी लोगों का ध्यान मूल मुद्दे से भटकाया हीं है और इस विरोध आन्दोलन में उन कुछ अभागों को बेहिचक आगे से रोकने का काम किया है जो कि इन Tags के साथ जीवन जीने को मज़बूर हैं। फिर भी ऐसे पक्षपाती लोगों की मंशा को धता बताते हुए पटना में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
अपराधीयों के आर्थिक वर्ग की ओर इशारा करने वाले Tags लगाने वालों की आँखों पर जहाँ वर्गवाद का चश्मा चढ़ा है वहीं क्षेत्रीय Tag लगा कर बात करने वाले लोगों की नजर पर क्षेत्रवाद का। और जैसा की अमूमन होता है इन चश्मों से अपराध और अपराधीयों को देखने पर वे आपको पूर्णता में नहीं दिखते हैं।
अपराधी और उनका आर्थिक वर्ग
आर्थिक स्थिति का इस अपराध में कोई योगदान नहीं है । यह कोई आर्थिक अपराध नहीं है। अपराधीयों के अपराध करने के तरीक़े पर उनके आर्थिक वर्ग और उनकी शैक्षणिक स्थिति का असर तो होता है परंतु इससे अपराध की गम्भीरता में कोई अंतर नहीं पड़ता। यह समझना और जानना अत्यंत कठिन नहीं है कि बढ़ते आर्थिक और शैक्षणिक स्तर से अपराध करने वाले की हिम्मत, सफ़ाई और उसके पकड़े न जाने की संभावना बढ़ती जाती है। अंत: यदि समाज अपराध रोकने के प्रति इतना ही गम्भीर है तो उच्च वर्ग और शैक्षणिक स्तर वाले अपराधी के द्वारा किए गए अपराध पर समाज को ज्यादा चिंताग्रस्त होना चाहिए परंतु मैं ऐसा नहीं कहूँगा क्यों कि मेरी नज़र में अपराधी या ग़ैर अपराधी पर ये Tags लगाना बेमाने है।
मेरे विचार में लोगों ने अपनी सुविधानुसार हर अपराध की Tagged परिभाषाएँ गढ़ ली है और उनके पास अलग-अलग Tag वाले अपराधीयों के द्वारा किए गई अपराध की गम्भीरता को मापने के लिए अलग-अलग बैरोमीटर है।
इस बलात्कार के अपराधीयों को सज़ा दिलवाने की मुहिम के दिनों में कई अन्य राज्यों में आर्थिक स्थिति की दृष्टि से निचले पायदान पर बैठी बच्चियों से हुए बलात्कार की घटना को मिडीया ने उतना महत्व नहीं दिया जितना इन घटनाओं को मिलना चाहिए था। इनमें एक घटना बैंगलूरू में 15 साल की एक “मज़दूर की बेटी” के साथ हुई थी और दूसरी बिहार में 8 साल की एक “दलित की बेटी” के साथ। दोनों की कुकर्म के बाद हत्या कर दी गई थी। क्या उन अख़बारों  और टी वी चैनलों में काम करने वाले लोग इन Tags लगी पीड़िताओं को इनसान नहीं समझते? अफ़सोस है कि शायद नहीं। यदि वे ऐसा करते तो यह मुहिम एक विशिष्ट वर्ग और बड़े शहर में रहने वाली लड़की के लिए न्याय की गुहार मात्र बनने की जगह  इस घृणित अपराध के विरूद्ध शंखनाद बन सकता था। परंतु Tags लगाने की इस प्रवृति ने ऐसा होने से एक बार फिर रोक दिया।
अपराधी और उनका मूल क्षेत्र
मेरा मानना है कि क्यों की प्रत्येक राज्य, धर्म, जाति और अन्य जो भी Tag आप उचित समझें उन Tag वाले लोगों में भिन्न आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति वाले लोगों की बहुलता है अत: उनके अपराध के करने के तरीकों और पकड़े जाने की प्रतिशतता भी भिन्न है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए यदि हम यह माने कि अपराधीयों का प्रतिशत सभी ओर समान है तो क्या ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाले मध्य भारत के राज्यों में अपराधियों की संख्या ज्यादा होना कोई आश्चर्य की बात है? फिर भी यदि कहीं अपराध का प्रतिशत अधिक है तो उसका विश्लेषण दोष निवारण के नज़रिए से होना चाहिए न कि क्षेत्रवाद से प्रेरित और दोषारोपण के नज़रिए से। ये अपराधी कोई राज्य भक्त तो होते नहीं अत: इनसे सबसे ज्यादा त्रस्त उनके अपने राज्य के लोग होते हैं। अपराध और अपराधीयों के वर्णन में इन Tag का प्रयोग करने से मिडीया वाले यदि बचें तो इससे अपराध विरोधियों का क़िला मजबूत ही होगा। मगर Tag लगाने की प्रवृति अफ़सोस ऐसा होने से बार बार रोक देती है।

बलात्कार और इस शब्द का दायरा

हालाँकि मैं कोई विधि विशेषज्ञ तो नहीं हूँ पर समय-समय पर अख़बारों में प्रकाशित बलात्कार  के चल रहे मामलों को पढ़ने से मुझे इस शब्द का दायरे में निम्न प्रकार के मामले नज़र आते है।

1.     सर्वप्रथम अजनबी(यों) द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर किए गए कुकृत्य , उदाहरण: वर्तमान मामला
2.     परिवार और परिचितों के द्वारा किए गए विशेष रूप से बच्चों के साथ किए गए कुकृत्य। हालाँकि इस प्रकार के मामलों की संख्या कम जान पड़ती है परंतु कई समाजसेवी संस्थाओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों और हाल में प्रसारित सत्यमेव जयते में दिखाए गए मामलों से समस्या की गम्भीरता का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
3.     पीड़िता के आर्थिक अथवा व्यवसायिक जीवन को प्रभावित करने का सामर्थ्य रखने वाले वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा भय दिखा कर कार्यस्थलों पर किए जाने वाले कुकृत्य: उदाहरण: कई
4.     पहले दिन से हीं यौन सम्बन्ध बनाने की मंशा के साथ भोली-भाली लड़कियों को झूठे प्रेम में फँसा कर किए जाने वाले कुकृत्य। बाद में सम्बन्ध विच्छेद को ब्रेक अप का फैंसी नाम दे कर अपराधी नए शिकार की तलाश में आगे बढ़ जाता है। इस प्रकार के मामले विरले ही प्रकाश में आते हैं मगर इसकी संख्या मेरे विचार में सबसे अधिक है।
5.     कोई फायदा पाने की चाहत रखने वाली महिलाओं द्वारा स्वेच्छा से बनाए गए शारीरिक सम्बन्धों को बाद में वादे के अनुसार फायदा न मिलने के कारण अदालत में बलात्कार बता कर अपराधी को सज़ा दिलवाने के प्रयास।  ऐसे मामले फिल्म व्यवसाय से जुड़े लोगों में सर्वाधिक पाए जाते हैं, परंतु अन्य व्यवसायिक क्षेत्रों में भी कमज़ोर चरित्र वाले उच्च अधिकारियों और उनसे किसी भी कीमत पर फायदा पाने की इच्छुक लालची महिलाओं के बीच इस प्रकार के मामले होते रहते हैं।
6.     वैवाहिक सम्बन्धों में पत्नी की अनिच्छा के होते हुए बनाए गए सम्बन्ध।
पाँचवे और छठे प्रकार के मामलों को बलात्कार मानना अनुचित है। पाँचवे प्रकार के मामलों को आर्थिक मामले की श्रेणी में रखना उचित है । वेश्यावृति और इस प्रकार के मामलों में पड़ी महिलाओं में केवल एक फर्क है: वेश्यावृति में कीमत पैसे के रूप में वसूली जाती है और इस प्रकार के मामलों में फायदों के रूप में। यदि वेश्या को कोई कीमत न चुकाए तो वह व्यक्ति मात्र आर्थिक अपराधी है। छठे प्रकार के  अपराध मात्र घरेलू हिंसा के अपराध हैं। इस प्रकार से बनाए गए सम्बन्ध में पति को मात्र यौन हिंसा का दोषी मानना उचित है। 
साथ ही साथ दूसरे तीसरे एवं चौथे प्रकार के बलात्कारों को भी उसी गम्भीरता से लेना चाहिए जितना की पहले प्रकार के अपराधों को। सर्वप्रथम इनकी संख्या जितनी अधिक है, इनका प्रकाश में आने का प्रतिशत उतना ही कम। इनमें पहले मामले से अधिक कड़ी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए।

बलात्कार का कारण
बलात्कार के कारणों को लेकर कुछ पूर्वाग्रह से ग्रसित बयान कई जिम्मेदारी वाले पदों पर आसिन अधिकारी और नेता भी देते रहते हैं जैसे की कम कपड़े..आदि । परंतु बलात्कार का कारण केवल कमज़ोर चरित्र, हैवानियत और आत्म नियंत्रण की कमी ही होती है। कपड़ों और सुनसान स्थान पर अकेली चलने वाली लड़की को इसका जिम्मेदार ठहराने वाले लोग जाने अनजाने हर पुरूष को बलात्कारी साबित कर देते हैं। क्या सभी पुरूष थोड़ी चमड़ी और मौका देख कर बलात्कार करने को आतुर रहते हैं? यह सर्वथा अनुचित है। बलात्कार करने का कारण बलात्कारी के दिमाग में मौजूद होता है उसे बाहर ढूँढने वाले अपराध को बढ़ावा ही देते हैं।

अश्लील साहित्य, फिल्म और गालियाँ लोगों की मानसिकता को दूषित करते हैं और इस प्रकार के जघन्य कृत्यों के प्रति संवेदनशीलता में कमी लाते हैं। वर्तमान मामले में भी अपराधीयों के पास इस प्रकार के साहित्य मिले हैं। गैर-जिम्मेदाराना बयान भी बलात्कारियों के लिए दूध में बॉर्नवीटा का काम करतें हैं।

राजनीति में अपराधीयों के बढ़ती संख्या में एक महत्वपूर्ण हिस्सा बलात्कारियों का भी है। इन बाहुबलियों के खिलाफ मामला दर्ज़ करने वाली महिलाएँ  अत्यंत हिम्मत वाली होंगी इसे साबित करने के लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं है। साथ ही साथ यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि ऐसे कई मामले समाज, क़ानून की पेचीदगीयों और इन बाहुबलियों के इश्वरतुल्य सामर्थ्य से डरते हुए दब जाते होंगे। अत: ऐसे नेताओं का प्रतिशत जितना दिखता है उससे कहीं अधिक होगा। और उनका अपने भाई बन्धुओं के प्रति सहानुभूति रखना अपेक्षित है। इस स्थिति के लिए जनता के साथ-साथ उनको टिकट देने वाली राजनीतिक पार्टियाँ भी ज़िम्मेदार हैं। आश्चर्य नहीं है कि लोकतंत्र के देवालयों में जनता के तथाकथित प्रतिनिधि  आपत्तिजनक फिल्में देखते पकड़े गए हैं। यदि राजनैतिक पार्टियाँ वास्तव में इस समस्या के प्रति गम्भीर हैं तो उन्हें फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बिठा कर सर्वप्रथम नेताओं के विरूद्ध लगे आरोपों की जाँच एवं दोषी पाए गए नेताओं के विरूद्ध सज़ा सुनिश्चित करना चाहिए।
पुरुष प्रधान मानसिकता  महिलाओं को पशु से भी नीचे का समझती है। सम्मान तो दूर महिलाओं को मानवीय सम्वेदनाओं का भी अधिकारी नहीं मानती। हर क्षेत्र में महिलाओं का आगे आना उसके झूठे सम्मान को ठेस पहुँचाता है जिसकी कुण्ठा महिलाओं के प्रति शाब्दिक एवं शारीरिक हिंसा के रूप में बाहर आती है। सनद रहे कि पुरूष को प्रधान मानने वाला हरेक अहंकारी पुरूष बलात्कारी नहीं होता है। फिर भी  एक प्रगतिशील एवं सभ्य समाज में ऐसी मानसिकता स्वीकार्य नहीं हो सकती है। इस मानसिकता को बदलने के लिए शिक्षण और जागरूकता अभियानो से बड़े किसी उपाय की ज़रूरत है ।
शराब कई अपराधों की जड़ है और बलात्कार भी इस ज़हर के प्रभाव से अछूता नहीं है। थोड़े पैसों का लालच छोड़ कर सरकार को गम्भीरता से शराब पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए।

बलात्कारियों को क्या सज़ा मिलनी चाहिए

सज़ा का उद्देश्य कई हो सकते हैं, अपराधी में सुधार (जेल में चलाए जा रहे कार्यक्रम अथवा सश्रम कारावास), पीड़ित को न्याय देना (आर्थिक अपराधों की स्थिति में पीड़ित को हुई आर्थिक क्षति को दूर करना), समाज को अपराधी से बचाना (कारावास) अथवा भय द्वारा अपराध प्रवृति को दबाना। भारतीय दण्ड व्यवस्था में दिए गए दण्ड प्रावधानों का उद्देश्य मूलत: अपराधी में सुधार की और केंद्रित है  परंतु भ्रष्टाचार एवं न्याय मिलने में अत्यधिक देर इसकी बची खुची प्रभावशीलता को भी शून्य कर देती है। यदि किसी अपराध के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान हो और किसी युवा अपराधी का अपराध साबित होते-होते वह बुढ़ा हो जाए तब इस सज़ा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। विभिन्न Tag वाले लोगों को सज़ा मिलने की सम्भाविता एवं शीघ्रता में अंतर भी न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता को सन्देह के घेरे में ला कर खड़ा करता है। अत: सज़ा का मिलना शीघ्र, निष्पक्ष और अवश्यम्भावी हो जाने पर ही वह निरोधक का काम कर सकता है ।  सज़ा के स्तर का नम्बर उसके बाद आता है। 
सभी अपराध विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि गुस्से में किए गए अपराधों को छोड़ दें तो अपराधी के अपराध करने का स्तर अचानक हीं उँचा नहीं होता। शुरूआत हमेशा निचले स्तर के अपराधों से होती है। बलात्कारी बनने की शुरूआत हमेशा छेड़छाड़ से होती है। वर्तमान मामले के आरोपी इससे पहले कई अन्य छोटे मोटे मामलों यथा पॉकेटमारी, मारपीट और छेड़छाड़ आदि में लिप्त पाए गए थे परंतु विडम्बना यह है कि उनको कभी भी सही सज़ा नहीं मिली। भ्रष्टाचार और छेड़छाड़ के मामलों में पुलिस की उदासीनता से ऐसे तत्वों को बढ़ावा मिलता है। अपराध की पाठशाला में निचली कक्षाओं के अपराधीयों  को यदि उतीर्ण होने से रोक दिया जाए तो समाज को अपराध प्रवीण लोगों की फौज झेलने से बचाया जा सकता है।   

इस अपराध के लिए मृत्युदंड का समर्थन करने वालों के तर्क निम्न सोंच पर आधारित है:
1.    पाखण्डियों के समाज में पीड़िता की स्थिति इतनी बदतर हो जाती है कि वह जीवन भर इस अपराध को भूल नहीं पाती। एक सामान्य जिन्दगी उसकी पहुँच से बाहर हो जाती है। उसका प्रतिशोध तभी पूरा हो सकता है जब अपराधी को प्राणदण्ड मिले।
2.    इस प्रकार के एक-एक अपराधी से समाज को मुक्त कर हम एक बलात्कारी मुक्त समाज का निर्माण कर सकते हैं।
3.    कड़ी सज़ा के प्रावधान से अपराधी यह अपराध करने से बचेगा। परंतु यदि मनोवैज्ञानिक पहलू पर विचार किया जाए तो कामोत्तेजना से ग्रसित व्यक्ति की हालत एक नशेड़ी के जैसी हो जाती है। क्या स्थान और साधन उपलब्ध होने पर यह भय उसके कामोत्तेजना पर अंकुश लगा पाएगा? शायद नहीं।
 इस अपराध के लिए मृत्युदण्ड की वकालत करने वाले एक बात भूल जाते हैं कि मृत्युदण्ड की सज़ा का प्रावधान करने से कई नई समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं।
1 यदि आप हत्या और बलात्कार को एक श्रेणी की सज़ा बना देंगे तो बलात्कारी पीड़िता को मारने में तनिक भी संकोच नहीं करेगा। हालाँकि अभी भी परिचितों द्वारा किए कुकर्मों के मामलों में पीड़िताओं की हत्याएँ आम है पर मृत्युदण्ड का भय इसे और बढ़ावा देगा।
2. कोई भी गलती से किसी की मृत्यु के लिए खुद को ज़िम्मेदार बनने से रोकना चाहेगा। मृत्युदण्ड के मामलों में न्यायाधीश भी अत्यंत चौकन्ने हो जाते हैं। केवल पुख्ता सबूतों को हीं महत्व दिया जाता है और अंतिम निर्णय सुनाने में भी देर होती है। पीड़िता के आत्मसम्मान को न्यायालय में तार-तार करना आम बात है, मृत्युदण्ड इसमें और बढ़ोतरी ही करेगा। 

मेरे विचार में अपराधी को ऐसी सज़ा मिलनी चाहिए जिससे की वह अपने अपराध को जीवन भर भूल न पाए । 7-10 साल की सज़ा के साथ-साथ अंगभंग से इस उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसके बाद समाज़ को उसकी घृणित मानसिकता से कोई खतरा नहीं रहेगा। फिर भी बलात्कार के विस्तृत सन्दर्भ में यदि वह लैंगिक प्रताड़ना के किसी मामले में दुबारा लिप्त जाए तो उसे फाँसी भी दी जा सकती है।

क्या केवल सज़ा के प्रावधान से इस अपराध पर अंकुश लगाया जा सकता है
यह मान लेना की केवल सज़ा इस अपराध पर अंकुश लगाने में समर्थ हो जाएगी बेमाने होगा। जिस प्रकार यदि किसी क्षेत्र में गरीबी और बेरोज़गारी की स्थिति चिंताजनक हो तो बिना इन कारणों का निदान किए यह अपेक्षा रखना कि पॉकेटमारी, चोरी और अन्य आर्थिक अपराध मिट पाएँगे,  अनुचित है उसी प्रकार इस प्रकार की मानसिकता वाले लोगों की समस्याओं और कुण्ठाओं का निदान भी आवश्यक है।

जिन राज्यों में लिंगानुपात चिंताजनक स्थिति तक गिर चुका है उन राज्यों में इस दिशा में सुधारात्मक और दण्डात्मक कदम उठाने के काम को भी बराबर की प्राथमिकता देनी होगी।

हमारे देश में पाखण्डी लोगों द्वारा वेश्यावृति को अवैध बना देने से भी कई समस्याएँ बलवती हुई हैं। इससे पुलिस और अधिकारियों की जेबे गर्म तो हो जाती हैं परंतु इस तथाकथित अवैध व्यवसाय पर रोक नहीं लग सका है। अत्यंत दयनीय स्थिति में जी रही ये महिलाएँ मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह जाती हैं एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में कई जानलेवा यौनजनित रोगों से ग्रसित हो जाती हैं। इससे न केवल इनकी आजीविका पर असर पड़ा है बल्कि अपराधी प्रवृति वाले लोगों को भी रोगों के भय से सभ्य समाज की लड़कियों को अपना शिकार बनाने का बहाना दिया है। इन रोगों के बारे में यदि समय-समय पर इनकी जाँच कर प्रमाणपत्र दे दिया जाए, वेश्याओं का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया जाए एवं उनके बच्चों के पुनर्वास की उचित व्यवस्था की जाए तो एक साथ कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। जिन्हें लगता है कि वेश्यावृति के वैध करार देने से गरीब और मासूम लड़कीयों के अगवा होने में वृद्धि हो जाएगी उन्हें मैं यह बताना चाहता हूँ कि यदि वेश्याओं के पंजीकरण की व्यवस्था इतनी पुख्ता हो कि बिना पंजीकरण के इस व्यवसाय में उनका प्रवेश वर्जित हो जाए तो ऐसे मामले प्रकाश में आना आसान हो जाएगा। सभी कार्यक्षेत्रों की तरह वेश्यावृति में भी महिलाओं पर अत्याचार आम है। परंतु व्यवसाय के अवैध स्थिति के कारण वेश्याओं के लिए कानून व्यवस्था के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं। कैसी विडम्बना है कि जिस देश में कसाब जैसे दरिन्दे को जेल में ससम्मान सभी मानवाधिकार हासिल हैं, इन महिलाओं को अनैतिक लोगों की सेवा करने वाला एक व्यवसाय करने के लिए अनैतिक बताया जाता है और बुनियादि अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। वहीं उनके ग्राहक दिन के उज़ाले में शराफत का नकाब ओढे हमारे आपके बीच सामान्य जिन्दगी जी रहे होते हैं।
आपतिजनक साहित्य एवं फिल्मों पर रोक लगी होने के बावजूद भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था इन सामग्रियों के छुपे प्रसार को सुनिश्चित करती है। सरकार अपना विरोध करने वाले स्वरों को दबाने के लिए तो किसी भी हद तक जाने को तैयार बैठी है परंतु आपत्तिजनक वेबसाइटों की पहुँच को बरक़रार रखना चाहती है।
          निष्कर्ष

मैं इस विषय का विशेषज्ञ नहीं हूँ। यद्यपि मैंने निष्पक्ष और सम्पूर्ण विश्लेषण का  प्रयास किया है पर मेरे विचार इस विषय पर अंतिम सत्य नहीं हो सकते। फिर भी जिस प्रकार गुस्साए लोग चारो ओर केवल फाँसी को इस समस्या का एकमात्र और अंतिम समाधान बता कर इस समस्या के सम्पूर्ण निवारण से भटक रहे हैं, मैं अपने विचारों को बेहतर मानता हूँ। आशा है कि आप इसमें सहयोग कर इसे और सम्पूर्ण बनाने में सहयोग करेंगे।

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