Monday 14 March 2011

महिला दिवस पर

कुछ दिन पहले महिला दिवस के कारण महिलाएँ एक बार फिर अख़बारों की सुर्खियों मे थी, पर इस बार कुछ अलग था। कुछ दिनों पूर्व हीं एक विमान यात्री ने यह कह कर तमाशा खड़ा कर दिया था कि वह उस विमान में यात्रा करके अपनी जान ज़ोखिम में नहीं डालना चाहता जिसको कि महिला चला रही हो। जो अपना घर नहीं सम्भाल सकती वह विमान कैसे सम्भालेगी। एक बात जो वह भूल गया था कि लोकतांत्रिक भारत में खुल्लम खुल्ला इस प्रकार के तालिबानी सोंच की कोई जगह नहीं है, इसलिए अंतत: उसे उस विमान में यात्रा करने के लिए उस विमान की सभी महिला कर्मचारियों से माफ़ी माँगनी पड़ी। और हाँ एक बात बताना तो मैं भूल हीं गया कि वह सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुँच गया परंतु महिला दिवस के दिन राधिका अपने कॉलेज तक पहुँचने के पहले हीं किसी मान ना मान मैं तेरा मेहमान types आशिक के हाथों भगवान के घर पहुँचा दी गई। पूरा देश हिल गया और दिल्ली में रहने वाले लड़कियों के पहले से ही डरे अभिभावक तो मानो अभी तक अपने आप को सम्भाल नहीं सके हैं।

हाँ एक बात और खास थी इस प्रकार के महिला दिवस में महिला दिवस के सौ साल पूरे हुए थे और तारीख थी: 08-03-11. 8+3=11 तो मैंने भी सोंचा MARCH को इस अति विशिष्ट मार्च की तारीख पर अपने विचार तो रखने हीं चाहिए।

मेरे पाठक जानते हैं कि मुझे किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह पसन्द नहीं है । जातिवाद, धर्मान्धता और क्षेत्रवाद जैसे पूर्वाग्रहों में अज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान रहता है, क्यों कि झुण्ड में रहने की मानवीय प्रवृति आपको दूसरे झुण्ड से दूर रखती है और आप विरोधी झुण्ड के प्रति तरह तरह की भावनाएँ गढ़ लेते है और जैसा चश्मा लगाएँगे वैसा दिखना भी शुरू हो जाता है । परंतु महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह तो इन पूर्वाग्रहों को भी मात दे जाति है। आखिर उस समूह के प्रति आप कैसे पूर्वाग्रह रख सकते है जिसका कोई सदस्य आपकी जन्मदाता, कोई आपकी बहन, कोई पत्नी और कोई बेटी के रूप में आपके जीवन का अभिन्न हिस्सा है???? जिनके अनगिनत अहसानों को आप मरते दम तक नहीं चुका सकते हैं । कहीं न कहीं तो भयानक गड़बड़ है उस मस्तिस्क में जिसमें इस प्रकार की पूर्वाग्रह का वास है।

बिन्दुवार उन पूर्वाग्रहों पर चर्चा करूँगा जो अपने समूह (यही एक समूह है मेरी जिसकी सदस्यता हिन्दी में लिखने के कारण मेरे पाठकों को उजागर हो चुकी है) के सदस्यों में मैंने देखी है।

महिलाओं को नौकरी नहीं करनी चाहिए।

एक प्रतिष्ठित कम्पनी में नौकरी के लिए साक्षात्कार के दौरान मेरे पास बैठे एक पुरूष उम्मीदवार ने कहा,यार ये लड़कियाँ नौकरी लेने क्यों आ जाती हैं, यहाँ हम नौकरी के बेगैर भूखे मर रहें है और इन्हें एक हीं परिवार में डबल इनकम के लिए नौकरी चाहिए। मैं मुस्कुरा कर रह गया, क्यों कि एक भूखे को सहानुभूति की जरूरत होती है तर्क की नहीं। मेरी मुस्कुराहट को अपने तर्क की स्वीकृति मानते हुए वह आगे बोला, सरकार को एक नियम बनाना चाहिए, एक परिवार में कोई एक हीं नौकरी करेगा, चाहे पति या पत्नी। मुझे लगा चलो बन्दा इतना तो मानने को तैयार है कि महिलाएँ नौकरी कर सकती हैं बशर्ते उनका पति बेरोज़गार हो। यानि उसको महिलाओं की योग्यता पर कोई शक नहीं था, उसका तर्क का एक प्रकार की समाजवादी धारणा से प्रेरित था, सभी परिवारों में चुल्हा जले, भले हीं आटा कोई लाए अथवा बर्तन कोई माँजे। वरना कई तो ऐसे मिल जाएँगे जो महिलाओं को बस चूल्हा चौका सम्भालने से ज्यादा किसी काबिल नहीं समझते।

इस बात में कोई शक नहीं है कि महिलाओं को नौकरी करनी चाहिए और ज़रूर करनी चाहिए। जो एक शिशु का पालन पोषण कर उसे इंसान बना सकती है वह दुनिया का कोई भी काम कर सकती है। इस बात में किसी तर्क वितर्क की जगह नहीं है। महिलाओं के कार्यालय मे आने से आने वाले फर्कों को रेखांकित करना चाहूँगा:

कार्यालय का माहौल सभ्य हो जाता है: कोई माँ बहन की गालियाँ नहीं निकालता, ना बॉस अपने अधिनस्थों को ना कोई अपने सहकर्मीयों को। गर्मी के दिनों में सभी कर्मचारियों की कमीज़ उनके देह पर हीं विराजमान होती है उपर की एकाध बटन खुलती भी है तो किसी किसी की और कभी-कभार।

प्रतियोगिता का माहौल बनता है: कभी कभी किसी सुन्दर महिला के कारण उसके सहकर्मी अथवा अधिनस्थ पुरूषों के बीच अथवा एक काबिल महिला और उसके सहकर्मी पुरूषों के बीच। आखिर कोई भी स्वाभिमानी पुरूष कार्य के क्षेत्र में महिला से हारना नहीं चाहता। अब यह बात अलग है कि कभी कभार कुछ कमज़ोर मानसिकता वाले पुरूषों के लिए यह विघ्नकारी साबित होता है, पर इसके लिए महिलाओं को दोष देना उचित नहीं है।

विक्रय, ग्राहक सेवा, स्वागत विभागों में महिलाओं का मुकाबला पुरूष कभी नहीं कर सकते। संवेदनशीलता, सम्मत करने जैसे हुनरों में महिलाएँ पुरूषों से कहीं आगे हैं। एक शैतान बच्चे की माँ का धैर्य क्या एक पुरूष के पास हो सकता है कभी?

महिलाएँ काम की वस्तु मात्र हैं

अब ऐसा वाहियात तर्क तो इस पृथ्वी का निकृष्टतम प्राणी मात्र मनुष्य हीं दे सकता है। क्योंकि जहाँ तक मुझे मालूम है अन्य कई अपराधों की तरह बलात्कार भी मात्र मानव जाति तक हीं सीमित है। इस प्रकार के तर्क देने वालों के लिए महिलाएँ एक निर्जीव वस्तु मात्र हैं । अत्यंत हीं अमानवीय और घृणित तरीके से किए गए बलात्कार के समाचार इस बात की पुष्टी करते हैं कि हमारे समाज में इंसान के रूप में कुछ ऐसे लोग भी रहते हैं जिन्हे मानसिकता के लिहाज़ से जानवर भी अपनी श्रेणी में रखना अपनी तौहिन समझेंगे। धन्य हैं वे कुछ देवियाँ जो बदनाम गलियों में इनका ज़हर निकालती रहती हैं, वरना गलियों में हमारी आपकी माँ-बहनों का चलना दूभर हो जाए। अरूणा शानबॉग की हालत देख कर शर्म से सिर झुक जाता है।

महिलाओं के यौन शोषण का अर्थ मात्र बलात्कार नहीं होता। इस विषय में पुरूषों को उचित शिक्षा देने की हर कार्यालय और संस्थान में कोशिशें हो रही हैं। अगर कुछ शरारती महिलाओं द्वारा इन नियमों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया जाता है तो इसमें इन नियमों को दोष देना उचित नहीं। अब अगर अन्य क्षेत्रों में महिलाएँ यदि पुरूषों की बराबरी कर सकती हैं तो फिर मौकापरस्ती और धोखेबाज़ी में क्यों नहीं।

महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए

अगर किसी क्षेत्र में महिलाओं के आने की सबसे ज्यादा ज़रूरत है तो वह है राजनिति। कुर्सी तोड़ते और एक दूसरे का कुर्ता फाड़ते राजनेताओं को देखकर हम उकता गए हैं। अब एक दूसरे की चोटी खींचते राजनेताओं को देखने की बड़ी इच्छा हैJ Jokes apart, अपराधी तत्वों में कुछ न कुछ तो कमी होगी हीं। जब हम मानव निर्मित श्रेणी जैसे कि जाति, धर्म आदि के आधार पर सीटों के आरक्षण की बात कर सकते हैं तो प्रकृति निर्मित लिंग के आधार पर क्यों नहीं। जो घर का बज़ट बना सकती है वह देश का बज़ट क्यों नहीं? जब वे टेलिविजन पर समाचारों का विश्लेषण कर सकती हैं तो उन समाचारों को बना क्यों नहीं सकती हैं?

महिलाएँ पुरूषो के बराबर हीं नहीं उनसे कहीं आगे निकल सकती हैं । हर वर्ष शैक्षणिक परीक्षाओं में महिलाओं का उत्तीर्णता के प्रतिशत अथवा अंकों के मामले में महिलाएँ पुरूषों को कहीं पीछे छोड़ देती हैं। अब पुरूषों को क्रिकेट, आवारागर्दी, सिनेमा और नशे से समय मिले तब तो पढ़ाई करें। मेरा तो मानना है कि कुछ पुरूष तो ऐसे निकम्मे होते हैं कि यदि उस नवयुवक की बात मान कर सरकार नौकरी के लिए इस प्रकार का कोई नियम बना दे तो ऐसे पुरूष अपनी पत्नी से चूल्हे चौके के साथ साथ नौकरी भी करवाएँगे और खुद किसी शराबखाने, कोठे, जुए के अड्डे अथवा नुक्कड़ के बैठक में डिंग हाँक कर अपने पुरूष होने का ढिंढोरा पिटते नज़र आएँगे। अगर इश्वर ने पुरूषों को शारिरिक रूप से सबल बनाया है तो महिलाओं को मानसिक रूप से। उनका अपने मन पर जितना नियंत्रण है उतना पुरूषों का नहीं। अनुशासन हीं देश को महान बनाता है जैसे विचार एक महिला (इन्दिरा गाँधी) के मन में हीं जन्म ले सकते हैं।

1 comment:

हरीश सिंह said...

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